अपराध के खबरें

अब कभी नहीं पुनर्जीवित होंगी मढ़ौरा की औद्योगिक इकाईयां बंद पड़ी मढ़ौरा की फैक्ट्रियों का दर्द

अनूप नारायण सिंह

मिथिला हिन्दी न्यूज :-मढ़ौरा में बंद औद्योगिक इकाइयों को खोलने को लेकर राज्य सरकार के पास कोई प्रस्ताव नहीं है बंद पड़ी चीनी मिल में किसानों का करोड़ों रुपया बकाया है जिसको लेकर मिल प्रबंधन समिति और राज्य सरकार के बीच करार हुआ था लेकिन यह पैसा भी किसानों को कब तक मिलेगा किसी को नहीं पता यह हम नहीं कह रहे यह सरकारी आंकड़े कह रहे हैं अगर आपको लगता है कि मढ़ौरा की बंद पड़ी औद्योगिक इकाइयां खुल जाएंगी पुनर्जीवित हो जाएगी तो इस खुशफहमी से बाहर निकलिए औद्योगिक इकाइयों को पुनर्स्थापित करने के लिए ना राज्य सरकार और ना ही कोई औद्योगिक घराना उत्सुक हैं यह अब सिर्फ और सिर्फ चुनावी जुमला बनकर रह गया है।मढौरा की चीनी मिल को बिहार की पहली चीनी मिल होने का गौरव हासिल रहा।मढ़ौरा की चर्चा अंग्रेजों ने अपनी पुस्तकों में भी की है। दरअसल मढ़ौरा की चीनी मिल की ख़ासियत ये थी कि वहां जो शक्कर बनती थी वे दूर से ही शीशे की तरह चमकती थी। मॉर्टन की चॉकलेट का तो कोई ज़ोर ही नहीं था। इसकी चर्चा आते ही सबके मुंह में पानी आ जाता था लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि मढ़ौरा चीनी मिल और मॉर्टन मिल दोनों ही रसातल में चले गए। अब सिर्फ उनकी यादें ही शेष है
वो भी एक ज़माना था जब इस कस्बे में काफी चहल-पहल हुआ करती थी। ज़िले भर से लोग यहां आकर किसी न किसी रूप में रोज़गार पा ही जाया करते थे। आप इसी बात से इस औद्योगिक कस्बे की चकाचौंध का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि यहां की कुल जनसंख्या का 80 फ़ीसदी यहां की मिलों से ही रोज़गार पाता था। चीनी, मॉर्टन, सारण और डिस्टीलरी की चार-चार फैक्ट्रियां। शाम के चार बजते ही जब मिल से छुट्टी का सायरन बजता था तो सड़कों पर चलने की जगह नहीं हुआ करती थी। इतनी चहल-पहल कि पूछिए ही मत। लोगों को आज की तरह अपने घर से बाहर जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी, लेकिन आज वो सड़कें वीरान पड़ी हैं, टूटी-फूटी पड़ी हैं। जिनकी मरम्मत करने वाला आज कोई नहीं ।
90 के दशक तक बिहार में क़रीब 24 बड़ी शुगर फ़ैक्ट्रियां थीं। उनमें से ज़्यादातर अब बंद हो चुकी हैं। 
जिस चीनी फैक्ट्री के नाम से मढ़ौरा जाना जाता था उसकी स्थापना 1904 में हुई थी। शक्कर उत्पादन में भारत में इसका दूसरा स्थान था। वर्ष 1947-48 में ब्रिटिश इंडिया कॉरपोरेशन ने इसे अपने अधीन ले लिया था। लेकिन नब्बे के दशक आते-आते प्रबंधन की ग़लत नीतियों के कारण यह मिल बंद हो गयी। लखनऊ की गंगोत्री इंटरप्राइजेज नामक कंपनी के हाथों इसे 1998-99 में बेचा गया ताकि इसे नई ज़िंदगी मिल सके। बावजूद इसके मिल चालू नहीं हो सकी। बिहार राज्य वित्त निगम ने सन् 2000 में इसे बीमारू घोषित कर अपने कब्जे में ले लिया। जुलाई 2005 में उद्योगपति जवाहर जायसवाल ने इसे ख़रीद लिया। उन्होंने दो साल में यानी 2007 तक इसे चालू करने का ऐलान भी किया था लेकिन तब से लेकर अब तक नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा।
हमने जब स्थानीय निवासीयों से इस बारे में बातचीत की तो उन्होंने इसका ठीकरा राज्य सरकार के ढुलमुल रवैये पर फोड़ा। उनके मुताबिक अब नौबत ये आ गई है कि करीब 25 साल से बंद पड़े चीनी मिल के कल-पुर्ज़े तक पुराने पड़ गए। धीरे-धीरे इसके कल-पुर्ज़े कबाड़ में बेच दिए गए। और रही सही कसर चोरों ने पूरी कर दी।अब चाहे चीनी मिल हो या मॉर्टन मिल दोनों खंडहर में तब्दील हो चुके हैं। मढ़ौरा की पहचान कभी 52 कमरों वाला शुगर फ़ैक्ट्री का गेस्ट हाउस हुआ करता था। लेकिन आज वो भी वीरान पड़ा है। और तो और उसके अंदर पेड़-पौधे भी उग चुके हैं। अब तो इस इलाके में ऐसी वीरानी फ़ैली है कि हर ओर सन्नाटा ही सन्नाटा नज़र आता है।
ये तो बात हुई चीनी और मॉर्टन मिल की। अब बात सारण फ़ैक्ट्री की।सारण फ़ैक्ट्री वो फ़ैक्ट्री हुआ करती थी जहां शुगर फ़ैक्ट्री में प्रयोग किए जाने वाले कल-पुर्ज़े बनाए जाते थे। जैसा की नाम से ही स्पष्ट था, सारण यानि इस फ़ैक्ट्री की पहचान सारण कमिश्नरी की सबसे बड़ी फ़ैक्ट्री के तौर पर थी। यहां से बनने वाले कल पुर्जे बिहार की चार कमिश्नरियों में सप्लाई किए जाते थे। लेकिन सरकार की ग़लत नीतियों या यूं कहें कि उसकी उपेक्षा के चलते ये सारी फैक्ट्रियां एक के बाद एक बंद होती चली गईं। और जैसे-जैसे ये फैक्ट्रियां बंद होती गईं वैसे-वैसे इस शहर की रौनक भी खत्म होती चली गई। अब इस कस्बे में कुछ शेष है तो वो इन चारों फैक्ट्रियों के खंडहर… और समय से पहले बूढ़े हो चले वो लोग जिन्हें आज भी इंतज़ार है अपने बकाये पैसों का, और वो तभी संभव है जब फैक्ट्री की चिमनी से एक बार फिर से धुंआ निकलता दिखे। जो अब संभव नहीं दिखता।

إرسال تعليق

0 تعليقات
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

live