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जब पटना की गलियों में आइसक्रीम व पावरोटी बेचा महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त ने पढें दिलचस्प स्टोरी

अनूप नारायण सिंह 

मिथिला हिन्दी न्यूज :- अगर आप देश भक्त हैं तो इस कहानी को जरूर पढ़ें वर्ष 1999 में पत्रकारिता जीवन की शुरुआत करने के साथ पहली खास खबर की तलाश में पटना के जक्कनपुर मुहल्ले में काफी जद्दोजहद के बाद मुझे वीर बटुकेश्वर दत्त की पत्नी और बिहार माता के गौरव से नवाजी गई अंजलि दत्त से मिलने का मौका मिला)
  #देश के लिए फांसी पर चढ़ जाने वाले #क्रांतिकारियों की लम्बी-सी लिस्ट भले ही आपको इतिहास में मिल जाये। पर ऐसे स्वतंत्रता सेनानी जो मरे तो नहीं लेकिन जिन्होंने देश को आज़ादी दिलाने के लिए मौत से भी भयानक कठिनाइयाँ झेली, ऐसे बस चंद ही लोगों के नाम आपको शायद पता हो।देश की आज़ादी के बाद जैसे इन क्रांतिकारियों का अस्तित्व ही खत्म हो गया। इन्हीं में से एक हैं बटुकेश्वर दत्त! वही बटुकेश्वर दत्त जिन्होंने भगत सिंह के साथ असेंबली में बम फेंका, उनके साथ गिरफ्तार हुए और जब भगत सिंह को सांडर्स की हत्या के लिए फांसी की सजा हुई तो इन्हें काला पानी की सजा मिली।भगत सिंह तो चले गये लेकिन लोगों के दिल में ऐसी जगह पा ली जो सदियों तक रहेगी। पर बटुकेश्वर, जिन्होंने आजीवन कारावास में जेल की प्रताड़नायें सही, और फिर जेल से बाहर आने के बाद भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में योगदान दिया, उन्होंने आजादी के बाद की ज़िन्दगी गुमनामी में जी।

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को तत्कालीन बंगाल में बर्दवान जिले के ओरी गाँव में हुआ था। कानपुर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान उनकी भगत सिंह से भेंट हुई। यह 1924 की बात है। भगत सिंह से प्रभावित होकर बटुकेश्वर दत्त उनके क्रांतिकारी संगठन हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन से जुड़ गए। उन्होंने बम बनाना भी सीखा. क्रांतिकारियों द्वारा आगरा में एक बम फैक्ट्री बनाई गई थी जिसमें बटुकेश्वर दत्त ने अहम भूमिका निभाई।

विदेशी सरकार जनता पर जो अत्याचार कर रही थी, उसका बदला लेने और उसे चुनौती देने के लिए क्रान्तिकारियों ने अनेक काम किए। ‘काकोरी’ ट्रेन की लूट और लाहौर के पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या इसी क्रम में हुई। तभी सरकार ने केन्द्रीय असेम्बली में श्रमिकों की हड़ताल को प्रतिबंधित करने के उद्देश्य से एक बिल पेश किया। क्रान्तिकारियों ने निश्चय किया कि वे इसके विरोध में ऐसा क़दम उठायेंगे, जिससे सबका ध्यान इस ओर जायेगा।
8 अप्रैल, 1929 ई. को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केन्द्रीय असेम्बली के अन्दर बम फेंककर धमाका किया। बम इस तरह से बनाया गया था कि, किसी की भी जान न जाए। बम के साथ ही ‘लाल पर्चे’ की प्रतियाँ भी फेंकी गईं, जिनमें बम फेंकने का क्रान्तिकारियों का उद्देश्य स्पष्ट किया गया था। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था।

असेम्बली में बम फेंकने के बाद बटुकेश्वर दत्त तथा भगतसिंह ने भागकर बच निकलने का कोई प्रयत्न नहीं किया, क्योंकि वे अदालत में बयान देकर अपने विचारों से सबको परिचित कराना चाहते थे। साथ ही इस भ्रम को भी समाप्त करना चाहते थे कि काम करके क्रान्तिकारी तो बच निकलते हैं पर अन्य लोगों को पुलिस परेशान करती है।भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त दोनों गिरफ्तार हुए, उन पर मुक़दमा चलाया गया। 6 जुलाई, 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अदालत में जो संयुक्त बयान दिया, उसका लोगों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर ‘लाहौर षड़यंत्र केस’ का मुक़दमा चलाया गया। जिसमें भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सज़ा दी गई थी, पर बटुकेश्वर दत्त के विरुद्ध पुलिस कोई प्रमाण नहीं जुटा पाई। उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा काटने के लिए काला पानी जेल, अंडमान भेज दिया गया।

फांसी की सजा न मिलने पर देशभक्ति की भावना से भरे बटुकेश्वर बहुत निराश हुए। उन्होंने ये बात भगत सिंह तक पहुंचाई भी कि वतन पर शहीद होना ज्यादा फख्र की बात है, तब भगत सिंह ने उनको ये पत्र लिखा कि वे दुनिया को ये दिखाएं कि क्रांतिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते बल्कि जीवित रहकर जेलों की अंधेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सहन कर सकते हैं।
जेल में ही बटुकेश्वर दत्त ने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में वे बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से टीबी की गंभीर बीमारी लेकर लौटे बटुकेश्वर दत्त अपने इलाज के बाद फिर स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गये। जिसके कारण एक बार फिर वे गिरफ्तार हुए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए।

साल 1947 में देश आजाद हो गया। बटुकेश्वर दत्त ने शादी कर ली और वे पटना में रहने लगे। लेकिन उनकी जिंदगी का संघर्ष जारी रहा। रोजगार के लिए कभी सिगरेट कंपनी एजेंट तो कभी टूरिस्ट गाइड बनकर उन्हें पटना की सड़कों की धूल छाननी पड़ी।

बताते हैं कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे। बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया। परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं। हालांकि, बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफ़ी मांगी थी।उन्होंने किसी से सरकारी मदद नहीं मांगी, लेकिन 1963 में उन्हें विधान परिषद सदस्य बना दिया गया। पर फिर उनके हालातों में ज्यादा सुधार नहीं आया। 1964 में बटुकेश्वर दत्त के बीमार होने पर उन्हें पटना के सरकारी अस्पताल में भारती कराया गया पर वहां उन्हें एक बिस्तर तक नहीं मिला।

इस बार से आहत बटुकेश्वर के दोस्त और एक स्वतंत्रता सेनानी चमनलाल आज़ाद ने एक अख़बार के लिए गुस्से से भरा लेख लिखा,

“हिंदुस्तान इस क़ाबिल ही नहीं है कि यहां कोई क्रांतिकारी जन्म ले। परमात्मा ने बटुकेश्वर दत्त जैसे वीर को भारत में पैदा करके बड़ी भूल की है। जिस आज़ाद भारत के लिए उसने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी, उसी आज़ाद भारत में उसे ज़िंदा रहने के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़ रही है।”

इसके बाद सरकार का ध्यान उन पर गया। पंजाब सरकार ने बिहार सरकार को एक हजार रुपए का चेक भेजकर वहां के मुख्यमंत्री केबी सहाय को लिखा कि यदि पटना में बटुकेश्वर दत्त का इलाज नहीं हो सकता तो राज्य सरकार दिल्ली या चंडीगढ़ में उनके इलाज का खर्च उठाने को तैयार है।इस पर बिहार सरकार हरकत में आयी। दत्त के इलाज पर ध्यान दिया जाने लगा। मगर तब तक उनकी हालत बिगड़ चुकी थी। 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया। यहां पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था जिस दिल्ली में उन्होंने बम फोड़ा था वहीं वे एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाए जाएंगे।

बटुकेश्वर दत्त को सफदरजंग अस्पताल में भर्ती किया गया। बाद में पता चला कि उनको कैंसर है और उनकी जिंदगी के कुछ ही दिन बाकी हैं। कुछ समय बाद पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन उनसे मिलने पहुंचे। आंसूओ से भरी आंखों के साथ बटुकेश्वर दत्त ने मुख्यमंत्री से कहा,

“मेरी यही अंतिम इच्छा है कि मेरा दाह संस्कार मेरे मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में किया जाए।”

20 जुलाई 1965 को भारत माँ का यह वीर इस दुनिया को अलविदा कह गया। बटुकेश्वर दत्त की अंतिम इच्छा को सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की समाधि के पास किया गया।

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