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#LetsInspireBihar के तहत सोशल मीडिया के सशक्त हस्ताक्षर

अनूप नारायण सिंह 

मिथिला हिन्दी न्यूज :- बिहार में किसी भी नेता अभिनेता से बड़े सेलिब्रिटी के रूप में सोशल मीडिया पर स्थापित हो चुके हैं चर्चित आईपीएस अधिकारी व बिहार सरकार गृह विभाग में विशेष सचिव विकास वैभव के पोस्ट का इंतजार इनके फॉलोअर्स को लगा रहता है यात्री मन के बहाने उन्होंने इतिहास को तथ्यात्मकता के साथ पाठकों के सामने रखना शुरू किया है यात्री मन के बहाने यात्रा वृतांत लिखते हैं और उसमे इतिहास के साथ वर्तमान की संभावनाएं भी समाहित करते हैं पिछले दिनों लेह की यात्रा पर गए इस आईपीएस अधिकारी ने अपने फेसबुक पर एक यात्रा वृतांत लिखा है जिसे सोशल मीडिया पर काफी पसंद किया जा रहा है।
लेह में बीते पलों का स्मरण कर रहा है यात्री मन ! मित्रों, लद्दाख भ्रमण के क्रम में 27, जुलाई, 2021 के संध्या की एक अविस्मरणीय अनुभूति को आज आपके साथ साझा करना चाहता हूँ । आपको संभवतः यह स्मरण होगा कि जुलाई, 2021 के अंतिम सप्ताह में मैं लद्दाख में था जहाँ लेह के अतिरिक्त नुबरा घाटी तथा पैंगोंग सरोवर की यात्रा भी कर सका था । इस परिभ्रमण के क्रम में अनेक ऐसी अनुभूतियां हुईं जिन्होंने चिंतनरत मन को निश्चित रूप से प्रभावित किया जिनमें से कुछ पूर्व में साझा भी कर चूका हूँ । प्रत्यक्ष रूप में बादल फटने की प्रथम अनुभूति लेह के निकट शक्ति में 29, जुलाई को तब हुई थी जब नुबरा घाटी से वारिला होते हुए पैंगोंग की यात्रा पर था । प्रकृति द्वारा अचानक वीभत्स रूप धारण किए जाने की वह अनुभूति वास्तव में अद्भुत थी चूंकि यदि केवल 5 सेकेंड से ही चूके होते तो बादल फटने के कारण उत्पन्न तीव्र जलधारा में उसी समय बह गए होते और आज संभवतः यह पोस्ट नहीं कर रहे होते । लेह की उस अनुभूति ने निश्चित ही मन को क्षणिक रूप में उस समय अवश्य कुछ विचलित किया था परंतु उसी समय कुछ चिंतन करने पर ही मन शांत एवं आश्वस्त भी हो गया था कि सर्वशक्तिमान की कृपा बनी हुई है । 

इस यात्रा के क्रम में जो सर्वाधिक अविस्मरणीय अनुभूति रही, उसे आज आपके साथ साझा करता हूँ चूंकि LetsInspireBihar अभियान के संदर्भ में आज एक मित्र से चर्चा के क्रम में एक प्रश्न को उत्तरित करने की मानसिक प्रक्रिया ने उस अनुभूति के पुनः स्मरण हेतु मुझे बाध्य कर दिया । बात 26, जुलाई, 2021 के प्रातः काल से ही प्रारंभ करता हूँ जब वायुमार्ग से लेह जा रहा था चूंकि तब से ही ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मेरे लिए कुछ न कुछ संदेश अवश्य ही उस पर्वतीय क्षेत्र में समाहित है जिसे ग्रहण करने के निमित्त ही यात्रा का संयोग बना था । लेह पहुँचने पर प्रथम दिवस अल्प आॅक्सीजनीय क्षेत्र में शारीरिक अनुकूलन हेतु विश्राम में बिताने के पश्चात 27, जुलाई को प्रातः काल ही सिंधु नदी के तट की ओर निकल गया था जहाँ बैठकर मन उन प्राचीन ऋषियों तथा मनीषियों का स्मरण करने लगा, जिनके तत्वदर्शी विचार आज भी प्रेरित करते हैं । मन यह सोचने लगा कि कभी वे भी उन्हीं पर्वतों के मध्य सिंधु के किनारे बैठकर उन तत्वों को ग्रहण करने का प्रयास करते रहे होंगे जिनके कारण हिमालय की आध्यात्मिक उर्जा मर्त्यलोक में प्रसिद्ध होती चली गई । ऋषियों का स्मरण करते हुए धीरे-धीरे जब काल के क्रम में आगे बढ़ने लगा तब उसी क्षेत्र के मूल निवासी रहे प्रसिद्ध आचार्य रत्नवज्र तथा साक्यश्री का स्मरण आने लगा जो आज से लगभग एक सहस्त्र वर्ष पूर्व अध्ययन हेतु वहाँ से विक्रमशिला महाविहार तक यात्रा कर पहुँचे थे और वहाँ अपनी विद्वता के कारण केवल प्रसिद्ध ही नहीं हुए थे अपितु विक्रमशिला के द्वारपालाचार्य के रूप में नियुक्त भी हुए थे । सिंधु के तट पर चिंतनरत होने पर समय बीतने का पता ही नहीं चला और भोजन का निर्धारित समय समीप आ गया । वहाँ से जब वापस विश्राम गृह की ओर लौट रहा था तब मन अत्यंत आध्यात्मिक भावों में सराबोर था । 

जिस अविस्मरणीय अनुभूति को मैं आपके साथ साझा करना चाहता हूँ संभवतः उसकी भूमिका सिंधु किनारे से ही प्रारंभ हो चुकी थी । विश्राम गृह में भोजन तथा अल्पविश्राम के पश्चात संध्या के पूर्व लेह के ही एक पर्वत पर अवस्थित विश्व शांति स्तूप के भ्रमण हेतु निकला । वहाँ पहुँचकर जब स्तूप को देखते हुए धीरे-धीरे उपर बढ़ रहा था तब स्तूप से ठीक पहले अवस्थित एक मंदिर की ओर ध्यान गया और वहाँ व्याप्त शांति के वातावरण की अनुभूति हेतु कुछ पल व्यतीत करने की इच्छा होने लगी । तब मैंने तय किया कि सर्वप्रथम स्तूप के आसपास घूम लेता हूँ और तत्पश्चात कुछ समय मंदिर में अवश्य व्यतीत करूँगा । लेह का मौसम भी उसी दिन अचानक बदला था और दोपहर में जलवृष्टि के उपरांत पर्वतों के मध्य वायु के तीव्र प्रवाह में समाहित शीतलता की भौतिक के साथ-साथ आत्मीय अनुभूति भी हो रही थी । स्तूप की ओर बढ़ने के क्रम में जब मुस्कुराकर "नमस्कार सर !" कहते हुए कुछ लोगों से साक्षात्कार हुआ तो मिलते ही लगा कि संभवतः वे बिहार के ही होंगे और मुझे जानते होंगे । वार्ता के क्रम में ज्ञात हुआ कि वे लोग भी बेगूसराय, बिहार के ही निवासी थे और मुझे वहाँ देखकर अत्यंत आश्चर्यचकित और प्रसन्न हो गए थे । मुझे भी मिलकर अत्यंत प्रसन्नता हुई और उनसे मिलने के पश्चात कुछ समय तक एकांत में धीरे-धीरे स्तूप की परिक्रमा करता रहा और जीवन रूपी यात्रा के लक्ष्यों पर चिंतनरत होने लगा । तत्पश्चात स्तूप के समीप ही कुछ समय के लिए एकांत में बैठकर जब पर्वतों की ओर देखने लगा तब मन पर्वतराज हिमालय से साक्षात्कार के क्रम में संलग्न होकर पुनः सिंधु तट पर बीते क्षणों की भांति आध्यात्मिक होता चला गया और ऐसे में उन पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य समाहित शीतलता में मानवीय चिंतन से परे परंतु दीर्घकालिक एकांत में ग्राह्य उस अत्यंत अद्भुत दृष्टि की आत्मीय अनुभूति सी प्रारंभ होने लगी, जिसने प्राचीनतम काल से ही ऋषियों तथा मनीषियों को भी कालमुक्त चिंतन हेतु निश्चित रूप से प्रेरित किया होगा । 

शीतल वायु के प्रवाहमान वातावरण में स्तूप के समीप लगभग आधे घंटे बैठने के पश्चात जब वापस मुख्य द्वार की ओर लौटने लगा, तब मंदिर ने पुनः अपनी ओर स्वतः आकर्षित कर लिया और इस बार जैसे ही मंदिर परिसर में प्रविष्ट हुआ वहाँ समाहित शांति के वातावरण में कुछ समय के लिए ध्यानस्थ होकर बैठ ही गया । इस अवस्था में कुछ समय ही बीता था कि अचानक एक क्षण ऐसा प्रतीत हुआ मानो किसी असीम उर्जा के स्रोत से सशक्त साक्षात्कार हो गया हो और शरीर में एक अद्भुत कंपन के साथ आँखें खुल गयीं । आंखों के खुलते ही सीधा ध्यान सामने अवस्थित भगवान बुद्ध की प्रतिमा की ओर गया जहाँ से एक संदेश निकलता हुआ सा प्रतीत हो रहा था जिसकी अनुगूंज में समाहित भावना मात्र एक शब्द रूप धारण करते हुए मन में निरंतर गुंजायमान हो रही थी । वह शब्द था "त्याग" ! उस क्षण ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो स्वर्णिम प्रकाश से अलंकृत प्रतिमा में स्वयं साक्यमुनी विद्यमान हो गए थे और कह रहे थे कि "देखो, मैंने अपने जीवन काल में कितना त्याग किया था और उसी त्याग के कारण ही तो सदा के लिए मानव जाति का प्रेरणास्रोत बन गया !", इसके साथ ही ऐसा भी प्रतीत हो रहा था कि वह मानो पूछ भी रहे हों कि "बताओ, तुमने क्या त्यागा है और अन्य क्या त्यागने का विचार रखते हो !" 

जब आँखों को बंद कर पुनः चिंतनरत हुआ तब मन कहने लगा कि कालपट्ट पर स्थायी प्रभाव केवल वैसे व्यक्ति ही छोड़ते हैं जिनमें त्याग करने की क्षमता होती है । सिद्धार्थ गौतम द्वारा राजकीय सुखों के स्वैच्छिक त्याग के कारण ही उनके व्यक्तित्व में ऐसे चुम्बकीय आकर्षण का उदय हुआ जिसने संपूर्ण मानव जाति के इतिहास को सदैव के लिए प्रभावित कर दिया । आदि शंकराचार्य के त्याग के कारण ही संपूर्ण भारत भूमि दीर्घकालिक रूप में प्रभावित हो गई । मन यह स्पष्ट कहने लगा कि इतिहास में जो भी व्यक्ति प्रेरणास्रोत बने, उनके उदय एवं प्रसिद्धि का कारण भी मूलतः त्याग ही रहा । इस अद्भुत अनुभूति के पश्चात कुछ समय बस वहीं आँखों को बंद किए बैठा ही रहा और जीवन रूपी यात्रा के लक्ष्यों की समीक्षा करने लगा । कुछ समय के पश्चात जब निकलने लगा तब चिंतनरत मन इसावास्य उपनिषद के मंत्र "त्येन त्यक्तेन भूंजीथा:" अर्थात "त्याग भाव के साथ तू इसे (मायारूपी संसार को) भोग" का पुनः स्मरण कर रहा था और एक नवीन उर्जा के साथ सशक्त एवं सुदृढ़ अनुभव कर रहा था । अगले दिन नुबरा घाटी की ओर निकल गया था जहाँ रात्रि विश्राम के पश्चात वारिला के मार्ग से पैंगोंग सरोवर की यात्रा पर निकल गया था जिसकी अनुभूतियां पूर्व में साझा कर चुका हूँ । 

जीवन रूपी यात्रा के क्रम में चिंतन करने पर इस प्राचीन श्लोक की प्रासंगिकता समय-समय पर सदैव स्पष्ट होती रहती है- 

"कालोऽयं विलयं याति भूतगर्ते क्षणे क्षणे । 
स्मृतयस्त्ववशिष्यन्ते जीवयन्ति मनांसि न: ।।" 

अर्थात - "प्रत्येक क्षण, समय अतीत की खाई में गायब होता चला जाता है, केवल स्मृतियाँ (यादें) रह जाती हैं, और स्मृतियाँ ही सदैव हमारे मन को सजीव रखती हैं ।" 

आज जब पटना में #LetsInspireBihar अभियान के संदर्भ में सोच रहा था तब ही एक मित्र का फोन आया जो हंसते हुए बता रहे थे कि उन्होंने जब अपने जिले के एक विद्वान व्यक्ति से इस अभियान की चर्चा की तब उनका पहला प्रश्न यही था कि "बात तो बहुत अच्छी है और निश्चित यदि परिकल्पना सिद्ध हुई तो नवीन भविष्य का उदय भी अवश्यंभावी होगा परंतु इसमें भला मेरा व्यक्तिगत क्या लाभ ?" 

इस प्रश्न को सुनते ही मन पुनः लेह की दिव्य अनुभूति का स्मरण करने लगा और मैंने स्वतः ही कहा कि जो व्यक्ति हर विषय में केवल यही देखते हैं कि उसमें उनका क्या लाभ है, वह वांछित परिवर्तन के वाहक हो ही नहीं सकते । इतिहास साक्षी है कि वांछित परिवर्तन केवल वैसे व्यक्ति ही कर सके हैं जो त्याग हेतु सदैव तत्पर रहे हों । प्रेरणा के अभियान में लक्ष्य जहाँ बिहार के उज्ज्वलतम भविष्य के निर्माण हेतु व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूप में सकारात्मक योगदान समर्पित करने की है, वहाँ भला ऐसे व्यक्तियों की क्या भूमिका हो सकती है जिन्हें हर विषय में केवल निजी लाभ अथवा हानि की ही चिंता हो । 

मैंने मित्र को बताया कि इस अभियान की सफलता तो तब ही होगी जब ऐसे व्यक्ति जुड़ेंगे जिनके मन में भावना यह नहीं हो कि उन्हें किस लाभ की प्राप्ति होगी अपितु जिनकी सोच ऐसी होगी कि राष्ट्र निर्माण के यज्ञ में उनके द्वारा आंशिक ही सही परंतु निस्वार्थ सकारात्मक योगदान किस प्रकार किया जा सकेगा । मेरी बात सुनकर मित्र मेरी बात से संतुष्ट हो उठे और बोले कि निश्चित ही व्यक्तियों की असीम संख्या जुटाने से कोई लाभ नहीं होगा जब तक उनमें त्याग की मौलिक भावना समाहित नहीं होगी । मित्र से वार्ता के क्रम में जैसे ही लेह की उस अद्भुत अलौकिक अनुभूति का स्मरण आया, उसे आपके साथ साझा करने की तीव्र इच्छा को रोक नहीं सका । 

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