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जुबली - उस जैसा पर वो नहीं

अनूप नारायण सिंह 
इधर नया ट्रेंड ये चला है कि पीरियड फिल्में या सीरीज बनाओ तो किसी वास्तविक बड़े स्कैण्डल को उठा लो, फिर उसे मनचाहा तोड़ो, मरोड़ो और डिस्क्लेमर के साथ पेश कर दो। फिर दर्शकों को माथापच्ची करने दो कि वही है, वही है पर वो ऐसा नहीं था। पहले कला फ़िल्म में 1942 में एक अत्यंत प्रतिभासंपन्न किशोर गायक मास्टर मदन को धोखे से जहर दे देने वाली कहानी उठाई और अब अमेज़न प्राइम पर जुबली वेब सीरीज में बॉम्बे टॉकीज के पॉवर कपल हिमांशु रॉय और देविका रानी की कहानी को उठाया है। देविका रानी के अपने हीरो नज़मुल हसन के साथ भाग जाने का किस्सा इस वेब सीरीज का मूल आधार अवश्य है पर बाकी पूरी कहानी मनघड़ंत है। यहाँ काल्पनिक शब्द इसलिये प्रयोग करना उचित नहीं कि इस मामले में कल्पना शब्द ही बेमानी है।

रॉय दम्पत्ति के अतिरिक्त सीरीज के दो किरदार हैं जो मुख्य हैं, एक तो बिनोद दास उर्फ़ मदन कुमार और दूसरा जय खन्ना। दोनों के ही सिनेमा इंडस्ट्री में संघर्ष की अद्भुत गाथा है जुबली। पर दिक्कत कहाँ है? दिक्कत वहाँ है कि मदन कुमार आपको कुमुदलाल गांगुली उर्फ अशोक कुमार की याद दिलाता है, वहीं जय खन्ना में राज कपूर की छवि उभरती है। पर जहाँ जहाँ ये दोनों किरदार मनमानी पर उतरते हैं, दर्शक बहुत कन्फ्यूज और छला हुआ महसूस करता है। अभी पल भर पहले जो अपने फिल्मी ज्ञान पर इतरा रहा होता है, अचानक तीन शब्द उसे मंडराते भँवरे की तरह परेशान करने लगते हैं - मने कुछ भी?

जुबली को देखने का सही तरीका तो यही है कि डिस्क्लेमर पर भरोसा करके ही सीरीज देखी जाए पर ऐसा संभव ही नहीं। कहानी में भी कई एक बातें हैं जो परेशान करती हैं। जैसे एक कन्फ्यूज किरदार है नीलोफ़र का जो बिनोद दास के पास होती है तो नलिनी जयवंत की याद दिलाती है पर जय खन्ना के पास होती है तो उसमें नरगिस की छवि कौंधती है हालाँकि वह इन दोनों में से कोई नहीं है। 

एक और दिक्कत है फ़िल्म के समयकाल से। 1947 के जिस ऐरा को फ़िल्म में दिखाया गया है वह यानी विभाजन इतनी बड़ी दुर्घटना थी कि उसके अपने राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव थे जिनसे फ़िल्म इंडस्ट्री को अछूता और अप्रभावित दिखाया गया है, यह बात एकदम गले से नहीं उतरती। दरअसल वास्तविक रूप से 1936-37 में घटी घटनाओं को जिस तरह 1947 में दिखाया गया है वह निश्चित तौर पर लेखकीय और निर्देशन की बड़ी चूक है। यही कारण है कि सीरीज वैसा प्रभाव नहीं छोड़ती जैसा अपेक्षित रहा होगा। 

फ़िल्म की एक बड़ी ख़ामी है भारतीय सिनेमा की कुछ ख़ास हस्तियों की प्रचलित छवि से मनमाना खिलवाड़ किया गया है। मतलब आप दादा मोनी का किरदार उठाकर जिस तरह उन्हें खलनायक बनाकर पेश कर रहे हैं वह कितना घातक है, नए दर्शकों के लिये। यदि आपकी सीरीज काल्पनिक है तो वास्तविक घटनाओं या व्यक्तियों से उसके साम्य को आप केवल एक डिस्क्लेमर के आधार पर कैसे ख़ारिज कर सकते हैं? 

कहानी से अलग अगर किरदारों की बात करें तो रॉय बाबू के रोल में प्रसेनजित खूब जमे हैं। स्टूडियो की आधी मालकिन और बदले की आग में जलती सुमित्रा कुमारी के रोल में अदिति राव हैदरी कम एक्सप्रेसिव हैं हालाँकि उनकी नाज़ुक और भली महिला की छवि को तोड़ने के लिये जुबली अच्छा प्लेटफार्म हो सकती थी। बिनोद दास के रोल में अपारशक्ति खुराना शुरू में चौंकाते हैं जब उनके सपाट मासूम चेहरे के पीछे छिपा शातिर किरदार अपना खेल खेलता है पर यही सपाट भावहीन चेहरा बाद में खीज पैदा करता है। उनकी पत्नी रत्ना के रोल में श्वेता प्रसाद बासु बहुत ही स्वाभाविक लगी हैं। जय खन्ना के खिलंदड़ और मनमौजी रोमांटिक युवक के रोल में सिद्धांत गुप्ता खूब प्रभावित करते हैं। काश ये किरदार मौलिक होता।

वहीं राइटर के कन्फ्यूजन को दरकिनार कर दिया जाए तो नीलोफ़र के किरदार में वामिका गब्बी का काम बहुत शानदार है। लगभग हर शेड है उनके अभिनय में। कैमरा उनके चेहरे से खूब खेला और उन्होंने बिलकुल निराश नहीं किया। इसी तरह राम कपूर काइयां फाइनेंसर कर रोल में खूब जमे हालाँकि उनके समेत पूरी सीरीज में जो और जितनी गालियाँ है उससे बहुत कोफ़्त होती है, विशेषकर मदन कुमार के नाम के साथ लगा विशेषण तो बहुत ही वाहियात और गैर जरूरी लगा। गालियों के बिना भी फिल्में अच्छी और रियलिस्टिक बनाई जा सकती हैं। एक ओर किरदार है जो बड़ा न होते हुए भी पूरी फिल्म पर छाया हुआ है वह है जमशेद खान यानी नन्दीश संधू का किरदार जो गहरी छाप छोड़ता है। 

गालियों के साथ एक और चीज की आवृत्ति बहुत खीज जगाती है वह है बार बार जमशेद के स्क्रीन टेस्ट के डायलॉग जो बार बार रिपीट किये गए हैं। बाकी नए नए आज़ाद भारत की फ़िल्म इंडस्ट्री में बहुत कुछ था जो इस रिपिटीशन के स्थान पर दिखाया जा सकता था पर अमेरिका और रूस की एजेंसियों के बीच फंसे सिनेमा उद्योग की कॉन्सपिरेंसिज में उलझ गई है पूरी कहानी जो कतई विश्वसनीय नहीं लगती। अलबत्ता संगीत जो कि कला फ़िल्म से कमतर ही रह गया, विभाजन और रिफ्यूजी कैम्पस के कुछ सीन्स, सिनेमा के विकास की कहानियों जैसे प्लेबैक सिंगिंग आदि के प्रार्दुभाव, पचास के दशक की सिनेमा इंडस्ट्री की साज़िशों, और स्टार्स को उठाने गिराने के खेल के लिये इसे एक बार देख सकते हैं पर शर्त वही है कि डिस्क्लेमर को ध्यान में रखकर देखिये और किरदारों में किसी रियल किरदार को ढूंढने की कोशिश मत कीजिये।

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