जब जीतन राम मांझी की कुर्सी पार्टी के लिए बनी चुनौती: शपथ से असहजता तक की कहानी


संवाद 

पटना:
20 मई 2014 को जब जीतन राम मांझी ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, तो यह न सिर्फ उनके राजनीतिक जीवन की बड़ी उपलब्धि थी, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण से भी एक ऐतिहासिक क्षण था। वे राज्य के पहले अत्यंत पिछड़े वर्ग से आने वाले मुख्यमंत्री बने। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही महीनों बाद मांझी के फैसलों और बोलने के तरीके पर जदयू के भीतर ही असहजता और असहमति दिखने लगी।


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🔹 नीतीश की पसंद, लेकिन बढ़ने लगी दूरी

मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश कुमार के इस्तीफे के बाद सौंपी गई थी, जब जदयू ने 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार झेली थी। नीतीश ने खुद मांझी को सीएम बनाकर सामाजिक समरसता का संदेश देना चाहा। लेकिन जल्द ही यह साफ हो गया कि मांझी इस पद पर सिर्फ प्रतीकात्मक चेहरा नहीं बनना चाहते थे।


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🔹 मांझी के फैसलों से पार्टी में खलबली

मुख्यमंत्री बनने के बाद मांझी ने कई ऐसे फैसले लिए जो पार्टी लाइन से हटकर थे। उन्होंने दलितों और पिछड़ों के लिए योजनाओं को आक्रामक तरीके से लागू करना शुरू किया और कुछ वरिष्ठ अधिकारियों को भी बदल दिया, जिससे जदयू के वरिष्ठ नेता चौंक गए।

उनके तेवर और बयानों में ऐसी स्वतंत्रता दिखने लगी जो पार्टी हाईकमान को अखरने लगी। कुछ मौकों पर उन्होंने नीतीश कुमार के फैसलों की भी अप्रत्यक्ष आलोचना कर डाली।


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🔹 अंतत: टकराव और इस्तीफा

पार्टी के अंदर मांझी को लेकर असहजता इतनी बढ़ी कि फरवरी 2015 में जदयू ने मांझी को हटाकर नीतीश कुमार को फिर से मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया। मांझी ने इस्तीफा देने से पहले सुप्रीम कोर्ट तक जाने की धमकी, विधानसभा में शक्ति परीक्षण और संवैधानिक अधिकारों की बात कही, लेकिन अंततः उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।


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🔹 मांझी की भूमिका आज

बाद में मांझी ने हम (हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा) नामक नई पार्टी बनाई और आज भी बिहार की राजनीति में एक दलित चेहरे के रूप में सक्रिय हैं। वे फिर से एनडीए में शामिल हो चुके हैं और सरकार के समर्थन में हैं।





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