चौरचन: मिथिला की आस्था और परंपरा का चंद्रोत्सव

रोहित कुमार सोनू 

मिथिला की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं में कई ऐसे पर्व शामिल हैं, जो लोक जीवन से गहराई से जुड़े हैं। इन्हीं में से एक प्रमुख पर्व है चौरचन, जिसे चतुर्थी या चौठ चंद्र पूजा भी कहा जाता है। यह पर्व विशेष रूप से बिहार के मिथिला क्षेत्र और नेपाल के तराई इलाके में बड़े श्रद्धा और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।

कब और क्यों मनाया जाता है?

चौरचन भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन चंद्रमा की पूजा करने से परिवार में सुख-समृद्धि, संतान की लंबी आयु और घर में शांति बनी रहती है। इस पर्व को "चंद्र दर्शन" का पर्व भी कहा जाता है।

पूजा की विशेष विधि

  • शाम को चाँद निकलने के बाद महिलाएँ व्रत रखकर चंद्रदेव को अर्घ्य देती हैं।
  • पूजा में अरवा चावल, दही, मठा, घी, केला, तरबूज, पान-सुपारी और पकवान शामिल होते हैं।
  • आँगन या छत पर विशेष रूप से पूजा का स्थान सजाया जाता है।
  • महिलाएँ पूरे परिवार की मंगलकामना और बच्चों के स्वास्थ्य की प्रार्थना करती हैं।

लोकगीत और सांस्कृतिक रंग

चौरचन के अवसर पर लोकगीत गाने की भी परंपरा है। महिलाएँ पारंपरिक गीतों के माध्यम से चंद्रदेव का आह्वान करती हैं। बच्चों में खास उत्साह होता है क्योंकि पूजा के बाद उन्हें विभिन्न पकवान और प्रसाद खाने का मौका मिलता है।

सामाजिक महत्व

यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था से जुड़ा है बल्कि परिवार और समाज को जोड़ने का भी काम करता है। घर-घर में चाँद देखने की परंपरा से एक सामाजिक और सांस्कृतिक एकजुटता का माहौल बनता है।


🌙 चौरचन पर्व मिथिला की संस्कृति का एक उज्ज्वल प्रतीक है, जो आस्था, परंपरा और परिवारिक एकता को मजबूत करता है।

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