चौरचन का इतिहास: मिथिला की परंपरा और चंद्र पूजा की अनवरत धारा

संवाद 

मिथिला की सांस्कृतिक धरोहर में कई पर्व-त्योहार ऐसे हैं, जिनकी जड़ें सदियों पुरानी हैं। इनमें से एक है चौरचन, जिसे चतुर्थी या चौठ चंद्र पूजा भी कहा जाता है। यह पर्व केवल धार्मिक आस्था ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

चौरचन का उल्लेख प्राचीन मिथिला और वैदिक कालीन परंपराओं में मिलता है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में चंद्रमा को औषधियों का स्वामी और जीवनदायी शक्ति कहा गया है। माना जाता है कि मिथिला क्षेत्र में कृषि और पशुपालन मुख्य जीविका होने के कारण लोग चंद्रमा की पूजा करते थे, क्योंकि उसकी किरणें फसलों और पशुधन पर सकारात्मक प्रभाव डालती थीं।

मान्यताएँ और किंवदंतियाँ

  • लोक मान्यता है कि गणेश चतुर्थी के दिन चंद्रमा ने भगवान गणेश का उपहास किया था, जिससे उन्हें शाप मिला। उसी शाप से मुक्ति पाने के लिए चंद्रदेव की पूजा की परंपरा आरंभ हुई।
  • मिथिला के लोक इतिहास में इसे संतान सुख और परिवारिक कल्याण से जोड़कर देखा जाता है।
  • एक अन्य मान्यता के अनुसार, इस पर्व की शुरुआत राजा जनक के समय से हुई थी, जब चंद्रदेव की कृपा से उनके राज्य में सुख-समृद्धि आई।

परंपरा का निरंतर प्रवाह

मिथिला की महिलाएँ पीढ़ियों से इस पर्व को पूरी निष्ठा और विश्वास के साथ निभाती आ रही हैं। शाम को जब पूरा परिवार छत या आँगन में चंद्रमा के दर्शन करता है, तो यह दृश्य समाज और संस्कृति को जोड़ने का एक सुंदर प्रतीक बन जाता है।

आधुनिक संदर्भ में चौरचन

आज भी यह पर्व उतनी ही श्रद्धा और धूमधाम से मनाया जाता है। शहरी जीवन की व्यस्तता के बावजूद मिथिला क्षेत्र के लोग अपने मूल और परंपरा से जुड़े रहते हैं। चौरचन न केवल धार्मिक विश्वास का प्रतीक है, बल्कि यह हमारी सांस्कृतिक अस्मिता और पहचान का भी हिस्सा है।


✍️ संपादक रोहित कुमार सोनू का मानना है कि "चौरचन केवल एक पर्व नहीं, बल्कि हमारी लोक-संस्कृति का जीवंत दस्तावेज है, जो आने वाली पीढ़ियों को अपनी जड़ों से जोड़े रखता है।"

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