पटना।
बिहार की राजनीति में परिवारवाद की जड़ें बहुत गहरी हो चुकी हैं। आमतौर पर चर्चा लालू प्रसाद यादव, चिराग पासवान और जीतन राम मांझी जैसे बड़े नामों तक सीमित रहती है, लेकिन सच्चाई यह है कि राज्य के लगभग हर जिले में राजनीति एक पारिवारिक विरासत बन गई है।
राज्य की सियासी तस्वीर देखें तो कई नेता पहले खुद विधायक या सांसद बने, फिर अपनी पत्नी, बेटा, बेटी, बहू, दामाद, यहां तक कि भाई-भतीजों को भी राजनीति में उतार दिया। यह सत्ता की विरासत को परिवार में बनाए रखने की सियासत है।
उदाहरणों से समझिए बिहार में फैले परिवारवाद की जड़ें:
लालू परिवार: खुद लालू यादव, पत्नी राबड़ी देवी, बेटा तेजस्वी, तेज प्रताप, बेटी मीसा भारती—सभी सक्रिय राजनीति में हैं।
पासवान परिवार: चिराग पासवान पिता रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं। अब पार्टी में अन्य रिश्तेदार भी सक्रिय हो रहे हैं।
मांझी परिवार: जीतनराम मांझी के बेटे संतोष सुमन मंत्री पद तक पहुंच चुके हैं।
अन्य नेता भी पीछे नहीं:
कई जिलों में पूर्व विधायकों की पत्नियां अब जिला परिषद या पंचायत प्रमुख हैं।
कई जगह बेटों को वार्ड सदस्य से लेकर विधानसभा तक पहुंचाया जा रहा है।
क्यों बना हुआ है परिवारवाद का दबदबा?
1. जनाधार और पहचान की विरासत – नेता अपनी पहचान और नेटवर्क का लाभ रिश्तेदारों को दिलाते हैं।
2. पार्टी की सहमति – ज़्यादातर दल "विनिंग फैक्टर" के नाम पर टिकट देने में हिचकिचाते नहीं।
3. राजनीतिक अवसर की कमी – बाहर के लोगों को टिकट या नेतृत्व का अवसर मुश्किल से मिलता है।
क्या है जनता की राय?
बिहार की युवा पीढ़ी अब इस परिवारवाद से थोड़ी नाराज दिखाई देती है। सोशल मीडिया पर युवाओं का एक वर्ग यह सवाल उठा रहा है कि क्या राजनीति सिर्फ परिवारों की जागीर है?
निष्कर्ष:
राजनीति में अनुभव जरूरी है, लेकिन अगर यह खून के रिश्तों तक सीमित हो जाए तो लोकतंत्र की आत्मा को ठेस पहुंचती है। बिहार में परिवारवाद विकास की नहीं, सत्ता की भूख का संकेत बनता जा रहा है।