ये बिहार है भाईया: सरकारी काम और न खत्म होने वाली परेशानियाँ

रोहित कुमार सोनू 

“ये बिहार है भाईया…” — यह वाक्य हर उस आम आदमी की जुबान पर आ जाता है, जो किसी सरकारी दफ्तर के चक्कर काट चुका है। यहां काम करवाना मतलब लाइन में लगो, फाइल ढोओ और महीने-दर-महीने इंतजार करो।

कभी बैंक का KYC

कभी बैंक में KYC अपडेट कराना हो तो घंटों लाइन में खड़ा रहना पड़ता है। कई बार तो लोग सुबह-सुबह टोकन लेने पहुंचते हैं और शाम तक नंबर नहीं आता।

कभी सिलेंडर का झंझट

गैस एजेंसी में सिलेंडर या KYC अपडेट कराने जाओ तो वही “सर्वर डाउन” वाली कहानी। लाइन में लगे लोग परेशान और कर्मचारियों का रवैया ढीला।

वोटर कार्ड में गड़बड़ी

मतदाता पहचान पत्र बनवाने में भी यही हाल है। नाम गलत, फोटो धुंधली, पता अधूरा—और फिर महीनों तक सुधार के लिए चक्कर।

प्रमाण पत्र का सिरदर्द

आय, जाति और आवासीय प्रमाण पत्र बनवाने में तो आम लोगों का जीना मुश्किल हो जाता है। ऑनलाइन आवेदन भरने के बाद भी ब्लॉक ऑफिस के चक्कर काटने पड़ते हैं।

जमीन का "जमा पंजी"

अब तो जमीन का जमा पंजी (Mutation) भी आम आदमी के लिए बड़ी समस्या बन गया है। फाइल अटक जाती है, दस्तावेज़ अधूरे बता दिए जाते हैं, और कई जगह बिना “खर्च” किए काम आगे नहीं बढ़ता। किसान अपने ही खेत का हक साबित कराने के लिए महीनों परेशान रहता है।


फर्क क्यों है?

दूसरे राज्यों में हालात इतने खराब नहीं हैं।

  • उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र या कर्नाटक जैसे राज्यों में ज़मीन का mutation और प्रमाण पत्र की प्रक्रिया ज़्यादातर ऑनलाइन हो चुकी है।
  • लोग अपने घर बैठे आवेदन कर देते हैं और समय सीमा में उन्हें दस्तावेज़ मिल जाता है।
  • वहां लाइन और दलाल संस्कृति धीरे-धीरे खत्म हो रही है।


बिहार में आज भी सरकारी काम का मतलब है—लाइन में लगना, चक्कर लगाना और धैर्य की परीक्षा देना।
जब तक सिस्टम पूरी तरह डिजिटल, पारदर्शी और जवाबदेह नहीं होगा, तब तक यह हालात बदलना मुश्किल है।

👉 यही फर्क बिहार और दूसरे राज्यों के बीच है—जहां एक तरफ लोग आसानी से ऑनलाइन सेवा पा लेते हैं, वहीं बिहार में आम जनता को अब भी अपने ही हक के लिए दफ्तर-दर-दफ्तर भटकना पड़ता है।

बिहार की ऐसी जमीनी सच्चाइयों के लिए पढ़ते रहिए मिथिला हिन्दी न्यूज.

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