छठ, चुनाव और बिहार का दर्द: आस्था के बीच रोजगार की चीख

संवाद 

इस बार बिहार में चुनाव ऐसे समय हो रहा है, जब छठ महापर्व दरवाजे पर दस्तक दे चुका है। छठ केवल पूजा नहीं, बल्कि यह बिहारी अस्मिता की सबसे पवित्र पहचान है। यह वह समय है, जब दुनिया देखती है कि एक बिहारी चाहे मुंबई की फैक्ट्री में काम करता हो या दिल्ली की निर्माण साइट पर, छठ के लिए हर हाल में अपने गांव लौटता है।

लेकिन छठ के इस लौटने के पीछे केवल आस्था नहीं होती, बल्कि एक गहरा दर्द भी शामिल होता है।


रेलवे स्टेशनों पर उमड़ती भीड़, मजबूरी की कहानी

हर साल की तरह इस साल भी रेलवे स्टेशनों पर उमड़ती भीड़, खचाखच भरी ट्रेनें और प्लेटफॉर्मों पर सोते लोग एक सवाल खड़ा करते हैं — क्या यह सिर्फ़ त्योहार की भीड़ है, या यह बिहार की मजबूरी की कहानी है? क्योंकि चाहे कोई भी सरकार आई हो, एक सच्चाई नहीं बदली — बिहार का बेटा मजदूर और मजबूर दोनों ही बना रहा।


आखिर क्यों छोड़नी पड़ती है अपनी मिट्टी?

छठ के आते ही एक ही सवाल फिर से उठता है — क्यों बिहार का नौजवान अपना राज्य छोड़कर दूसरे राज्यों में रोज़गार ढूंढने को मजबूर है? क्यों यहां उद्योग नहीं, कारखाने नहीं, सम्मानजनक नौकरी नहीं? अगर बिहार के नेताओं को सच में अपने लोगों की चिंता होती, तो सिर्फ़ बाहर जाने वाली ट्रेनें ही नहीं, भीतर आने वाली भी दिखतीं।


नेताओं को टिकट की चिंता, जनता को पेट की

जब राज्य छठ की तैयारी में डूबा है, उसी समय नेता चुनावी टिकट में उलझे हैं। किसे टिकट मिल रहा है, कौन सेट होगा, कौन जातीय समीकरण साधेगा — चुनाव का पूरा गणित इसी में उलझा है। लेकिन आम आदमी का दर्द इस गणित में कहीं खो जाता है। जनता वोट देने लाइन में लगती है और उसी शाम फिर रोज़गार के लिए अपना गांव छोड़ निकल पड़ती है।


ट्रेन के डिब्बे में जाति नहीं, सिर्फ एक पहचान—"बिहारी"

चुनावी मंचों पर चाहे जाति, धर्म और समीकरणों का खेल चलता हो, पर असली बिहार ट्रेन के डिब्बों में दिखता है। वहां कोई यादव नहीं, कोई ब्राह्मण नहीं, कोई पासवान या भूमिहार नहीं होता। वहां सबकी एक ही पहचान होती है — बिहारी। वे सीट के लिए नहीं, सिर्फ़ खड़े होने की जगह के लिए संघर्ष करते हैं। उनके दिल में बस एक ही बात होती है — किसी तरह छठ में गांव पहुँचकर अपनी मिट्टी को माथे से लगा सकें।


बिहार की ताकत उसके नेता नहीं, उसका मजदूर है

छठ का यह महापर्व हर बार हमें आईना दिखाता है कि बिहार की असली ताकत नेता नहीं, वे लोग हैं जो पसीना बहाकर देश की इमारतें खड़ी करते हैं, और फिर छठ में गंगा या तालाब के किनारे खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। वही मजदूर अपने आस्था के बल पर इस मिट्टी की पहचान बनाए हुए हैं।


रेल की सीटी में आज भी गूंजता है एक सवाल

राजनीति बदलती रहती है, चेहरे बदलते रहते हैं, नारों का रंग बदलता है, लेकिन बिहार का दर्द आज भी वही है। हर रेलगाड़ी की सीटी में एक सवाल अब भी गूंजता है —
“नेता बदलते रहेंगे, पर बिहार की तकदीर कब बदलेगी?”


छठ पर बिहार लौटते मजदूरों को प्रणाम — और बिहार के भविष्य से एक उम्मीद।
– मिथिला हिन्दी न्यूज

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