संवाद
बिहार के सीमांचल क्षेत्र में आदिवासी समाज द्वारा मनाया जाने वाला दूल्हा-दुल्हन का अनूठा मेला आज भी लोगों के लिए आश्चर्य और आकर्षण का विषय बना हुआ है। आधुनिक समय में जहाँ शादियों के तौर-तरीके तेजी से बदल रहे हैं, वहीं आदिवासी समुदाय आज भी पौराणिक स्वयंवर परंपरा को जीवित रखे हुए है। यह परंपरा न सिर्फ संस्कृति की धरोहर है, बल्कि महिला सशक्तीकरण का एक मजबूत उदाहरण भी मानी जाती है।
बड़गांव दुर्गा मंदिर में लगता है अनोखा मेला
कटिहार जिले के बाबनगंज पंचायत क्षेत्र स्थित बड़गांव दुर्गा मंदिर इस परंपरा का मुख्य केंद्र है। दशहरा के दौरान, विशेषकर महानवमी के अगले दिन दशमी की सुबह से, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से जुड़े आदिवासी युवक-युवती यहां इकट्ठा होते हैं।
समाज के वरिष्ठ लोगों की उपस्थिति में युवक-युवतियाँ खुले तौर पर अपना जीवनसाथी स्वयं चुनते हैं। यह चयन पूरी तरह सर्वमान्य होता है और परिवार व समाज इसे सम्मानपूर्वक स्वीकार करते हैं।
मंदिर परिसर में होता है विवाह
चयनित जोड़ों का विवाह मंदिर परिसर में पारंपरिक रीति-रिवाज़ों के साथ संपन्न कराया जाता है। समुदाय प्रमुख गोपी हेम्ब्रम बताते हैं कि यह परंपरा उनके पूर्वजों द्वारा शुरू की गई थी और आज भी पूरी श्रद्धा के साथ निभाई जाती है।
बड़गांव दुर्गा मंदिर भी आदिवासी समुदाय की आस्था का बड़ा केंद्र है, जिसे दरभंगा महाराज द्वारा स्थापित कराया गया था।
100 वर्षों से कायम है परंपरा
करीब एक सदी से अधिक समय से यह ऐतिहासिक मेला लगता आ रहा है। मेले के माध्यम से समुदाय के युवाओं को अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने की पूरी आज़ादी और सम्मान मिलता है।
सीमांचल में यह मेला आदिवासी समुदाय का सबसे प्रमुख सामाजिक आयोजन माना जाता है, जहाँ हर वर्ष सैकड़ों जोड़े विवाह के लिए पहुँचते हैं।
समाज के लिए मिसाल
जहाँ एक ओर समाज में कई कुप्रथाएँ देखने को मिलती हैं, वहीं यह स्वयंवर परंपरा आदिवासी समाज की खुली सोच और समानता का प्रतीक है। यह मेला न सिर्फ संस्कृति को जीवित रखता है, बल्कि युवाओं को स्वतंत्रता और सम्मान के साथ जीवनसाथी चुनने का अवसर भी देता है।
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