छठ: पंडित के पतरा से आगे, पंडिताइन के अंचरा में बसता इको-फेमिनिस्ट लोकदर्शन

रोहित कुमार सोनू 



इक्कीसवीं शताब्दी का सबसे बड़ा सत्य है — “Knowledge is Power”। परंतु आर्यावर्त के जिस भूभाग में छठ महापर्व का उद्भव हुआ, वहाँ इस ज्ञान की सर्वोच्च सत्ता किसी पंडित के पतरा में नहीं, बल्कि पंडिताइन के अंचरा में सुरक्षित थी और आज भी है। छठ वह उत्सव है जिसमें स्त्री न केवल व्रती है, बल्कि वह ‘लोकज्ञान, प्रकृतिज्ञान और आत्मबल की संवाहिका’ के रूप में प्रतिष्ठित होती है।

यह कोई सामान्य पर्व नहीं, बल्कि एक ऐसा लोकग्रंथ है जिसमें पर्यावरण संरक्षण, स्त्री सशक्तिकरण, सामाजिक समानता, धारणीय विकास, पारिवारिक संतुलन, और सांस्कृतिक समरसता एक साथ गुँथे हुए हैं।


जब छठ, फेमिनिस्ट और इको-फ्रेंडली डिस्कोर्स को मात देता है

आज का बाजारवाद "फेमिनिस्ट डिस्कोर्स" और "बॉडी लिबरेशन" जैसे नारों को उपभोग का साधन बना चुका है। लेकिन छठ अपने मूल स्वरूप में ऐसा उत्सव है जिसमें स्त्री केवल ‘देह’ नहीं बल्कि ‘धारण शक्ति’ (सस्टेनेबिलिटी) और ‘जीवनदायिनी ऊर्जा’ की प्रतीक है।

व्रती स्त्री सूर्योदय और सूर्यास्त के समय नदी में खड़ी होकर ‘घटस्थापना’ नहीं बल्कि ‘जीवन-अर्पण’ का अनुष्ठान करती है। वह ‘नैहर-ससुरार’ दोनों के लिए समृद्धि माँगती है —
“ससुरा में मांगिले अन्न-धन-लक्ष्मी, नैहर सहोदर जेठ-भाय...”
यहाँ स्त्री केवल गृहस्थी की धूरी नहीं, बल्कि “सामाजिक समन्वय की न्यायकर्ता” है।


लोकगीतों में छिपा संपूर्ण विकास मॉडल

फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य में लोकगीतों के माध्यम से जीवन का अध्ययन होता है। उसी दृष्टि से छठ गीतों को देखें —

🌿 “केरवा जे फरेला घवद से ओह पे सुग्गा मेड़राय...”
यह केवल प्रेमगीत नहीं — यह “बायोडायवर्सिटी संरक्षण और स्थायी कृषि चक्र” का लोकदर्शन है।

🌾 “कांचहि बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए...”
यह बहंगी केवल बाँस की संरचना नहीं, बल्कि किसानों की आर्थिक लचक और आस्थागत दृढ़ता का प्रतीक है।

🌊 “मइया ए गंगा मइया, मांगिलां हम वरदान...”
यह नदी को माँ कहने की पर्यावरणीय चेतना है, जो आधुनिक “रिवर रीवाइटलाइजेशन” थ्योरी से कई शताब्दियाँ आगे है।


छठ: संभवतः दुनिया का सबसे इको-फ्रेंडली उत्सव

✅ बिना प्लास्टिक
✅ बिना जगमग बिजली
✅ बिना कृत्रिम सजावट
✅ बाँस, मिट्टी, आटा, फल, गन्ना, अरघी — सब कुछ प्रकृति से
✅ घाट की सफाई — सामुदायिक स्वच्छता का सबसे बड़ा उदाहरण
✅ यह सबसे बड़ा “जन-आधारित पर्यावरणीय पुनरुद्धार अभियान” भी है।

छठ में “कोपि-कोपि बोलेली छठी माई…” जैसे गीत घाट की गंदगी पर देवी का आक्रोश दर्शाते हैं — यह सीधा संदेश है कि प्रदूषण, अध्यात्म का भी शत्रु है।


स्त्री के आंगन से ब्रह्मांड तक की यात्रा: सूर्य, संज्ञा और षष्ठी देवी

कुछ लोग इसे केवल सूर्य उपासना कहते हैं, परंतु छठ केवल सूर्य का महोत्सव नहीं, बल्कि सूर्य-संज्ञा-षष्ठी-स्कंद की संगठित आध्यात्मिक परंपरा है।

📜 यजुर्वेद में सूर्य का वर्णन — “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च”
📜 देवी भागवत में षष्ठी देवी का पूर्ण चरित्र
📜 गहड़वाल राजा गोविंदचंद्र (12वीं शताब्दी) के काल में इस व्रत का उल्लेख
📜 मिथिला के धर्मशास्त्री रुद्रधर (15वीं शताब्दी) के अनुसार यह सूर्य और स्कंदषष्ठी का संयुक्त व्रत है।

इस प्रकार छठ देवी-देवता और लोकजीवन के समन्वय की अनूठी कड़ी है।


जातीय और सामाजिक विमर्श के मूल में समावेशिता

छठ किसी एक जाति की बपौती नहीं। दलित से ब्राह्मण, किसान से मजदूर, व्यापारी से प्रवासी — सभी घाट पर बराबर खड़े होते हैं। घाट पर कोई बड़ा-छोटा नहीं होता, सिर्फ़ “व्रती” और “सेवक” होते हैं।


गीतों के अश्लीलकरण के खिलाफ सांस्कृतिक चेतना जरूरी

आज कुछ लोगों ने इसे “चोयं चोयं चोयं” तक सीमित कर बाज़ारवाद का गुलाम बनाने की कोशिश की है। यह छठ के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अमरत्व पर हमला है। लोकगीतों के आदर और संरक्षण की आवश्यकता आज पहले से कहीं अधिक है।


 छठ केवल पूजा नहीं, यह “जन-संस्कृति का जीवंत ज्ञानग्रंथ” है

यह पर्व बताता है कि नारी केवल आंगन की तुलसी नहीं, बल्कि “सूर्य की ऊर्जा और लोक की थाती” है। यह विश्व को सिखाता है कि इको-फ्रेंडली होना ट्रेंड नहीं, जीवन है। यह हमें याद दिलाता है कि ज्ञान किसी मंदिर की दीवारों में नहीं, बल्कि पंडिताइन के अंचर में भी हो सकता है।


लोक, प्रकृति और आस्था के अद्भुत समन्वय का नाम ही — छठ।

आस्था, संस्कृति और लोकजीवन की ऐसी ही विवेचनात्मक प्रस्तुतियों के लिए पढ़ते रहिए
👉 मिथिला हिन्दी न्यूज

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