छठ: सिर्फ़ महापर्व नहीं, मिट्टी से लौटती आत्मा की पुकार है

संवाद 

छठ हम बिहारी के लिए केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि अपनी मिट्टी, गांव, खेत-खलिहान, माता-पिता और अपनी जड़ों से भावनात्मक पुनर्मिलन का अवसर है। यह वह क्षण होता है जब वर्षों से दूर महानगरों में संघर्ष कर रहा बिहारी मन अचानक अपनी जन्मभूमि की ओर दौड़ पड़ता है—और इस दौड़ की शुरुआत अक्सर होती है शारदा सिन्हा की आवाज़ से।
“भूल चूक क्षमा करीह एहो छठी माई…”
यह पंक्ति जैसे ही कानों में गूंजती है, परदेश में रहने वाले हजारों बिहारी प्रवासियों की आंखें अनायास ही नम हो उठती हैं। छठ महापर्व उन्हें याद दिलाता है कि चाहे दूरी कितनी भी हो जाए, दिल हमेशा गांव के आंगन में, मिट्टी की सौंधी खुशबू में और गंगा घाट की लहरों में बसा रहता है।


प्रवासियों की संघर्ष गाथा और छठ का भावनात्मक खिंचाव

मुंबई, दिल्ली, लुधियाना, जालंधर, चेन्नई या सूरत—देश के तमाम हिस्सों में काम की तलाश में गए बिहारी कामगार साल भर मेहनत करते हैं, कई बार अपनी खुशियों तक को गिरवी रख देते हैं, लेकिन छठ आते ही जैसे आत्मा उनसे कहती है—“चल, घर चलें…”
ऐसे में चाहे ट्रेन में भीड़ हो, रिजर्वेशन न मिले, कई दिनों तक स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर इंतज़ार करना पड़े—फिर भी वे घर लौटने की हर कोशिश में खुद को झोंक देते हैं।
अक्सर यह भी देखने को मिलता है कि यदि किसी को छठ पर छुट्टी नहीं मिलती, तो वह नौकरी तक छोड़ देता है। क्योंकि उसके लिए छठ का घाट सिर्फ पूजा का स्थान नहीं होता, बल्कि मां के हाथों से बना ठेकुआ, बाबा की गोद में बैठा बचपन, और गांव की चौपाल की खुशबू होती है।


“मारबो रे सुगवा धनुख से…” – गीत में छुपा दर्द और अपनापन

शारदा सिन्हा की आवाज़ में जब “मारबो रे सुगवा धनुख से…” या “कांच ही बांस के बहंगिया…” गूंजते हैं, तो महानगरों में पसीने से तर-बतर मजदूर खुद को उस ‘सुग्गा’ से जोड़ लेते हैं, जो दूर अंजाम से बेपरवाह होकर सिर्फ अपने घर की छत, अपनी मां की मुस्कान और बहनों की आरती में लौटना चाहता है।
इन गीतों में सिर्फ सुर नहीं, प्रवासियों की आत्मा छिपी होती है। यही कारण है कि यह संगीत उन्हें ट्रेन के कठिन सफर में भी उम्मीद और ऊर्जा देता रहता है।


कार्तिक: समृद्धि, घर वापसी और छठ की पावन बेला

कार्तिक मास बिहार में समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। धान की फसल खेत से कटकर खलिहान में पहुंचती है और फिर घर में सुख, शांति और उपलब्धि के भाव के साथ प्रवेश करती है। इसी समय छठ का आगमन होता है, और यही त्योहार प्रवासियों के दिल में यह यकीन जगाता है कि गांव उनसे अभी भी जुड़ा है और प्रतीक्षा कर रहा है।

छठ के दौरान गांव की गलियों में बच्चों की हंसी, गन्ने के डंठल से सजे द्वार, कलश और दौरा की खरीदारी, घाट की सफाई और परिजनों की चहल-पहल मानो यह संदेश देती है—“अब घर लौटो, तुम्हारा इंतज़ार है।”


रेलवे स्टेशन: संघर्ष और श्रद्धा का सजीव मंच

अगर कोई छठ के समय बिहारी संघर्ष गाथा देखना चाहता है, तो उसे मुंबई CST, दिल्ली आनंद विहार, जालंधर, लुधियाना, सूरत या पुणे के स्टेशनों पर जाना चाहिए। कई दिनों तक पूरे परिवार के साथ प्लेटफॉर्म पर खड़े इन लोगों की आँखों में सिर्फ थकान नहीं, बल्कि एक अटूट उम्मीद होती है।
उनके दिल में केवल एक ही पुकार होती है —
“एहो छठी मइया, बस घर पहुंचा दीं…”


छठ: आस्था से इतर समरसता का पर्व

छठ ऐसा पर्व है जिसमें किसी धर्म, जाति या वर्ग की सीमाएं नहीं रह जातीं। गांव का हर इंसान व्रती का सहयोग करता है, चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो या किसी अन्य वर्ग से संबंधित हो। छठ घाट पर जब अस्ताचल होते सूर्य की आरती होती है, तो हर आंख में एक ही प्रकाश झलकता है—आस्था और अपनापन


निष्कर्ष: छठ घर वापसी नहीं, जड़ों से पुनर्मिलन है

छठ सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि वह क्षण है जब बिहारी आत्मा अपने शरीर से निकलकर अपनी मिट्टी में पुनः समा जाती है। यह वह समय है जब प्रवासी सिर्फ यात्री नहीं रहते, बल्कि भावनाओं के तीर्थयात्री बन जाते हैं। चाहे कितनी भी दुश्वारियां हों, चाहे टिकट मिले या नहीं, वे लौटते हैं—क्योंकि छठ केवल पूजा नहीं, घर की ओर वापस लौटती आत्मा की यात्रा है


छठ महापर्व की शुभकामनाओं के साथ,
देश-दुनिया की ऐसी ही भावनात्मक और सांस्कृतिक खबरों के लिए पढ़ते रहिए
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