रोहित कुमार सोनू
बिहार और आसपास के राज्यों में शादी-ब्याह का सीजन शुरू होते ही एक अनौपचारिक ‘मार्केट लिस्ट’ फिर से वायरल है। इस लिस्ट में कोई सोने-चाँदी का रेट नहीं, बल्कि दूल्हों की “क़ीमत” तय की गई है—वो भी नौकरी और पद के हिसाब से।
इस साल औसत “रेट” कुछ इस तरह बताए जा रहे हैं:
- पुलिस/सिपाही – 10 से 15 लाख रुपये
- बैंक कर्मचारी – 12 से 18 लाख रुपये
- दरोगा (SI) – 25 से 30 लाख रुपये
- मास्टर (शिक्षक) – 5 से 10 लाख रुपये
- SSC/रेलवे कर्मचारी – 22 से 25 लाख रुपये
- अग्निवीर – 5 से 7 लाख रुपये
- सॉफ्टवेयर/हार्डवेयर इंजीनियर, प्राइवेट बैंक कर्मी – “ब्रांड वैल्यू” में गिने जाते हैं, इनका रेट ओपन मार्केट में तय नहीं, पर ‘लड़की अच्छी कंपनी की हो’ यह शर्त रहती है।
बताया जा रहा है कि आगे इस “रेट” में और बढ़ोतरी की पूरी संभावना है!
जब शादी मंडप में बोली लगती दिखती है…
यह मज़ाक नहीं, बल्कि एक कड़वी सच्चाई है। समाज में आज भी दहेज एक “कमाई का जरिया” समझा जा रहा है। सरकारी नौकरी का मतलब सीधा “शादी में मोटा पैकेज” तय हो जाना। शादी सिर्फ़ दो परिवारों का मिलन नहीं, बल्कि एक तरह का सौदा बनता जा रहा है।
पद के हिसाब से दूल्हा, पैसा के हिसाब से बेटी?
सरकारी नौकरी—“स्थायी आय” का प्रमाण
दहेज—“सुरक्षा गारंटी” का झूठा बहाना
और लड़की?—अब भी एक “जिम्मेदारी” समझी जाती है।
यह मानसिकता केवल ग्रामीण इलाकों तक सीमित नहीं रही है। शहरों में भी "कौन-सा पद है?" पूछकर रिश्ता तय होता है।
दहेज की मजबूरी या समाज की बीमारी?
लोग कहते हैं “दहेज तो रिवाज़ है”, जबकि असल में यह एक सामाजिक अपराध है। कानून भी कहता है कि दहेज लेना-देना गैरकानूनी है। फिर भी रिश्ता तय करने से पहले “नौकरी और सैलरी” की रेटिंग जारी रहती है।
और दुखद बात यह है कि जिन नौजवानों ने मेहनत से नौकरी पाई, वे भी इसे “कमाई के बोनस अवसर” की तरह लेने लगे हैं।
जिस युवा को देश की सेवा करनी है, वही दहेज के सौदे में खड़ा दिखता है
दरोगा हो या सिपाही, मास्टर हो या बैंक कर्मी — क्या यह वही युवा नहीं जिनसे समाज उम्मीद करता है कि वे नई सोच लाएँगे?
तो फिर सवाल उठता है — जब शिक्षित भी दहेज मांगने में गर्व महसूस करें, तो बदलाव कौन लाएगा?
दहेज लेने वालों की तालियों के बीच रोती हैं कई बेटियों की किस्मतें
दहेज की मांग पूरी नहीं होने पर कई बेटियों की शादी टूट जाती है, कुछ की जिंदगी सुहागरात के बाद भी नर्क बन जाती है। कितनी बेटियां ससुराल में प्रताड़ित होती हैं, और कुछ तो इस बोझ में जान तक दे देती हैं।
समाज को आईना: शादी ‘सौदा’ नहीं, संस्कार है
जो लोग खुद को “काबिल दूल्हा” समझकर लाखों में रेट तय करते हैं, शायद यह भूल जाते हैं कि असली इज्जत रुपये से नहीं, संस्कारों से मिलती है।
असली रिश्ता वह है, जहां बेटी को “दहेज की थैली” नहीं, सम्मान और बराबरी की जगह दी जाती है।
अगर रेट बढ़े तो शर्म भी बढ़नी चाहिए – नहीं कि रेट लिस्ट
दहेज की लिस्ट वायरल होने से पहले अगर यह सोच वायरल हो जाए कि “बिना दहेज की शादी ही सम्मानजनक है”, तो शायद अगली पीढ़ी एक बेहतर समाज में सांस ले सकेगी।
– समाज को सोचने का समय आ गया है।
– दूल्हा नहीं, मानसिकता की बोली लग रही है।
– बदलाव की शुरुआत अगर आज नहीं, तो कब?
पढ़ते रहिए – मिथिला हिन्दी न्यूज
संपादक – रोहित कुमार सोनू