रोहित कुमार सोनू
दीपावली का पर्व आते ही पूरा देश रोशनी से नहा उठता है। एक-एक घर रंगोली, झालर और हजारों दीयों की चमक से जगमगाने लगता है। कहीं बच्चों की हंसी गूंजती है, कहीं मिठाइयों की खुशबू हवा में घुल जाती है। अमीरी के घरों में LED लाइट्स की चमक इतनी तेज होती है कि लगता है मानो अंधेरा नाम की कोई चीज़ इस दुनिया से मिट चुकी है।
पर क्या सचमुच अंधेरा मिट गया है?
नहीं… कुछ घर अब भी इंतज़ार कर रहे हैं उस एक दीये का, जो शायद कभी जल ही नहीं पाता।
मिथिला हिन्दी न्यूज के संपादक रोहित कुमार सोनू का कहना है,
"मजदूर के लिए दिवाली नहीं होती, दिवाली तो उन्हीं की होती है जिनके पास पैसे होते हैं। मजदूर तो दूसरों के घर सजाकर जब थककर लौटता है, तब उसके अपने घर में अंधेरा उसका इंतजार कर रहा होता है।"
ये शब्द सिर्फ एक बयान नहीं, बल्कि समाज के उस कड़वे सच को उजागर करते हैं जिसे हम दीयों की चमक में अक्सर अनदेखा कर देते हैं। जिस मजदूर के हाथों की मेहनत से आपकी छत जगमग होती है, उसी के आंगन में अंधेरा यूं सिसकता है मानो रोशनी ने उसके हिस्से का रास्ता ही भूल गया हो।
जब अमीर अपने बच्चों को पटाखे दिलाने बाज़ार में हजारों खर्च करते हैं, तब एक गरीब मां अपने बच्चे के लिए एक मिठाई का टुकड़ा जुटाने को भी सौ बार सोचती है। जहां एक ओर कुछ घरों में दिवाली खुशियों का त्योहार होती है, वहीं कई घरों में यह दिन बस एक और सामान्य रात बनकर रह जाता है—जहां खाली बर्तन, थके हुए हाथ और आंखों में अधूरे ख्वाब होते हैं।
दिवाली अगर रोशनी का त्योहार है, तो क्या ये रोशनी सिर्फ पैसों से खरीदी जा सकती है?
क्या एक दीपक तभी पूरा लगता है जब वह महंगी सजावट के बीच रखा हो?
या फिर तब, जब वह किसी ऐसे घर में जलाया जाए जहां पहली बार रोशनी ने कदम रखा हो?
इस दिवाली, जब आप अपने घर का पहला दीया जलाएं… तो एक पल के लिए उन लोगों के बारे में सोचिए जो अपनी दिवाली बेचकर आपके लिए रोशनी का इंतजाम करते हैं।
शायद आपकी एक मुस्कुराहट, एक मदद या एक दीया उनके लिए असली उत्सव बन जाए।
क्योंकि दिवाली सिर्फ उन घरों की नहीं होनी चाहिए जहां अमीरी की रोशनी जलती हो, बल्कि उन दिलों तक भी पहुंचनी चाहिए जो हर त्योहार पर बस एक छोटी सी उम्मीद को जलाकर सो जाते हैं।
– समाज के हर कोने में रोशनी पहुंचे, यही सच्ची दिवाली होगी।
देश, समाज और इंसानियत से जुड़ी ऐसी भावनात्मक खबरों के लिए पढ़ते रहिए
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