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गुरु गोविंद सिंह की अवतार भूमि : पटना

संवाद 

बिहार की राजधानी पटना, यानी पाटलिपुत्र लगभग एक हजार वर्षों तक देश की राजधानी रहा। इस नगर में सभी धर्मों के कई प्राचीन ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक तथा धार्मिक स्थल हैं। उन्हीं में से एक है, सिखों का दूसरा महान्ï तीर्थस्थल तख्त श्री हरमंदिरजी साहिब। जहाँ सिखों के दशम गुरु और खालसा पंथ के प्रवर्तक गुरु गोविंद सिंहजी का अवतार 
हुआ था। वर्तमान में यह राजधानी की सबसे सुंदर तथा भव्य इमारत है, जो संपूर्ण विश्व के सिख धर्मावलंबियों 
का आकर्षण केंद्र होने के अलावा अन्य धर्मावलंबियों के लिए 
भी आस्था का केंद्र है। पटना साहिब में हमेशा गुरुवाणी और सबद कीर्तन चलता रहता है, जो यहाँ आनेवाले देश
विदेश के श्रद्धालुओं व पर्यटकों को नैसर्गिक सुकून देता है और कुछ देर के लिए श्रद्धालु गुरुवाणी के अनमोल वचनों में खो जाते हैं। 
पटना की प्राचीन एवं ऐतिहासिक भूमि पर कदम रखनेवाला हर पर्यटक यहाँ श्रद्धा सुमन अर्पित करने अवश्य आता है, विशेषकर गुरु गोविंद सिंहजी के जन्मोत्सव के अवसर पर यहाँ की झाँकी देखते ही बनती है। देर रात तक जन्मोत्सव का कार्यक्रम चलता रहता है। गुरु गोविंद सिंहजी का अवतार इसी स्थान पर पौष सुदी सप्तमी संवत 1723 तदनुसार 22 दिसंबर, 1666 ई. के दिन शनिवार को रात्रि 1:20 मिनट पर 
माता गुजरी जी के गर्भ से हुआ। यह स्थान लगभग 450 वर्ष से अधिक प्राचीन है। तब सालिस राय की संगत ने गुरु व उनके परिवार से हवेली में ठहरकर उन्हें आशीर्वाद देने का अनुरोध किया। एक स्थानीय राजा फतेह चंद मैनी और उनकी पत्नी रानी विशंभरी देवी, गुरु तेगबहादुर के सच्चे अनुयायी और उनके परिजनों को आरामदायक आवास कराने की इच्छा रखते थे। इसलिए उन्होंने सालिस राय की हवेली के जीर्णोद्धार की व्यवस्था को और धर्मशाला के ऊपर एक भव्य भवन का निर्माण किया। 
यह सालिस राय जौहरी की हवेली थी। गुरु गोविंद सिंह के पिता गुरु तेग बहादुर, जो सिखों के नौवें गुरु थे, धर्म प्रचार के लिए प्रयाग, वाराणसी और मोक्षधाम गया की यात्रा करते हुए 1666 ई. में पटना आए थे, वे अपनी माता नानकीजी, धर्मपत्नी गुजरी बाई, साला कृपालचंद सिंह और दरबारी सिख को अपने भक्त सालिस राय जौहरी की हवेली में छोड़कर बंगाल तथा असम चले गए। चूँकि धर्मपत्नी गुजरीजी गर्भ से थीं। अत: उन्होंने असम के घने-जगंलों एवं उबड़-खाबड़ रास्तों को ध्यान रखते हुए उन सबों को अपने साले कृपाल चंद सिंह की देख-रेख में यहीं छोडऩा मुनासिब समझा और अकेले ही असम की ओर चल दिए। उनके मुँगेर पहुँचने पर पटना की संगत के नाम गुरु तेग बहादुरजी ने एक हुकुमनामा (संदेश पत्र) जारी किया और परिवार को एक अच्छी हवेली में रखने का आदेश देते हुए संगत को आशीर्वाद दिया। इसी हुकुमनामा में पटना को 'गुरु का घर कहा गया था। गुरु गोविंद सिंहजी ने अपने बचपन के लगभग पाँच वर्ष और तीन माह पटना में व्यतीत किए। बाल जीवन से जुड़ी अनेक स्मृतियाँ इस पुनीत भूमि पर छोड़ गए। गुरु गोविंद सिंह के 
बचपन का नाम गोविंद राय था। इनके जनम एवं बालक्रीड़ा से संबंध रखने वाले दिन तीन महत्त्वपूर्ण स्थान है। जनम स्थान तख्त हरमंदिर साहिब, मैनी संगत (बाल लीला) एवं गोविंद घाट, जहाँ बचपन में स्नान के लिए जाया करते थे। गुरु गोविंद के बचपन का पालना, हाथी दाँत की खड़ाऊँ, चंदन का कंघा आदि यहाँ आज भी सुरक्षित हैं। गुरु गोविंद सिंह के हस्ताक्षरयुक्त दशम ग्रंथ साहिब की मूल प्रति भी यहाँ 
सुरक्षित है। इसके अलावा समय-समय पर गुरु गोविंद सिंह और गुरु तेग बहादुर ने पटना की संगत के नाम जो हुकुमनामे और पत्र दिए थे, वे आज भी यहाँ सुरक्षित हैं। 
दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंद की इस पवित्र जन्मस्थली की इमारत का निर्माण पहली बार राजा फतेहचंद मैनी द्वारा 1722 संवत्ï में कराया गया था। 19वीं सदी के आरंभ में 1837 ईस्वी में अग्निकांड में भवन पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। 1837 ईस्वी में शेरे पंजाब महाराजा 
रंजीत सिंह ने पटना आने पर भवन का पुर्ननिर्माण शुरू करवाया, जो बाद के वर्षों में पूरा हुआ। महाराजा रंजीत सिंह, सिख साम्राज्य की स्थापना कराने के लिए याद किए जाते हैं। पटियाला, जींद और फरीदकोट के शासकांने भी निर्माण में अपने साधन लगाए। 1839 तक तख्त ने एक अन्य सर्वोत्कृष्ट रूप ग्रहण कर लिया। हालाँकि महाराजा रंजीत सिंह 
उसको नहीं देख पाने से पहले ही स्वर्ग सिधार गए। इसके बाद 1934 में अपने भीषण भूकंप में बाल जीवन से जुड़ी अनेक स्मृतियाँ इस पुनीत भूमि पर छोड़ गए। सिख बंधुओं की संख्या 1947 के बाद जब यहाँ बढ़ी तो सभी ने मिलकर दशबंद निकालकर इसे नया रूप दिया। नए भवन 
का शिलान्यास महाराज पटियाला ने 10 नवंबर, 1954 को किया और संगतों के सहयोग से पाँच मंजिले भवन को नयनाभिराम बनाया। तख्त श्री हरमंदिर साहिब के बारे में विभिन्न ऐतिहासिक पुस्तकों में विस्तृत रूप से 
उल्लेख किया गया। वे साक्ष्य आज भी मौजूद हैं। शिया मुजतहिद मुल्ला अहमद बाबाहनी 12वीं सदी के अंत में पटना पधारे थे, जिन्होंने मिरात उल-आहिवाल जहानुमा नामक पुस्तक में इस मंदिर के बारे में उल्लेख 
करते हुए लिखा है कि विभिन्न संप्रदाय के लोगों ने साथ निभाकर एक शानदार यादगार इमारत बनाई है, जिसका नाम हरिमंदिर रखा है। इस तरह यह सिखों की शक्ति का केंद्र बन गया। इसको 'संगत भी कहा जा सकता है। सिख कौम ने इसे अपना तीर्थ बना दिया है, जो सिखों के लिए सत्कार, नम्रता और श्रद्धा का प्रतीक है। 1781 में पटना पहुँचे चाल्र्स विलिकन्स ने इस ऐतिहासिक व पवित्र स्थल के बारे में एशियाटिव रसिचैंस में सिख एंड देयर कॉलेज एट पटना शीर्षक से विस्तार से लिखा है। उन दिनों गुरुद्वारा में एक समूह पाठशाला भी चलाई जा रहीथ। विलिकन्स ने इसे कॉलेज के नाम सेसंबोधित किया है। चाल्र्स विलिकन्स ने इस ऐतिहासिक व पवित्र स्थल 
का उल्लेख अपने शब्दों में इस प्रकार किया था—यह भव्य इमारत लगभग 40 वर्गमीटर क्षेत्र में है। हॉल (कमरा) बीच में चार भागों में विभक्त है। यह लकड़ी का है, फिर भी साफ-सुथरा है। इस इमारत की लंबाई अधिक और चौड़ाई कम है। संपूर्ण फर्श दरियों से ढका हुआ है। 6-7 पालकी साहिब दीवार के किनारे सहेजकर रखे हुए हैं, जिन सब पर धार्मिक कानून की पुस्तक ग्रंथ साहब सुशोभित है। दीवार पर यूरोपियन शीशे तथा मुसलमान शहजादों और हिंदू देवताओं की तसवीरें टँगी हैं। 
हॉल में एक किनारे में छोटा कमरा सुनहरे कपड़े में सजाया हुआ है। इसमें लोहे की एक ढाल, बड़ी तलवार, मोर के पंख का चौर रखा हुआ है। मंत्री साहब (पालकी गुरुग्रंथ साहेब) अच्छी तरह सजाई हुई है, जिसके ऊपर सुनहरी हार पड़ी हुई है। उसके आगे फूलों के गुलदस्ते सजावट 
के साथ रखे हुए हैं। तीन गोलक रखी हुई है, जिसमें यात्री दान डालते हैं। धार्मिक पुस्तक गुरुग्रंथ साहेब में से प्रतिदिन कुछ वाणियों का पाठ होता है। इसके सुनहरे अक्षर हैं। भवन के अंदर आने पर आपकी नजर माताजी कुआँ पर पड़ती है। प्रतिदिन पहले अहले सुबह नगाड़े की चोट 
के साथ गुरुवाणी आरंभ होती है, जो सुनने में बड़ी मधुर लगती है। बोले सो निहाल की जय ध्वनि इस स्थान से दूर-दूर तक सुनाई देती है। यहाँ प्रात: तीन बजे से रात्रि नौ बजे तक भजन-कीर्तन और कथा-प्रवचन का दौर चलता रहता है।
बहरहाल, आज विश्वभर के सभी धर्मों के लोगों के बीच श्रद्धा 
और आस्था का केंद्र बने तख्त श्री हरमंदिर के पाँच मंजिला नयनाभिराम भवन के सबसे ऊपर गुंबद पर एक स्वर्ण कलश रखा है, जो दूर से ही मनोरम दिखाई पड़ता है, साथ ही अपने प्रकाश से एकता व भाईचारे का संदेश भी देता है। इसके निर्माण में जयपुर, जोधपुर और मकराना 
के कुशल कारीगरों ने कार्य किया। राजपूत और मुगल शैली में निर्मित यह गुरुद्वारा स्थापत्य कला का एक शानदार उदाहरण है। 40 फीट लंबा और 40 फीट चौड़ा (चौकोर) में निर्मित इस गुरुद्वारा में सबसे ऊपर चौकोनुमा छत पर एक विशाल गुंबद है, जिसके चारों ओर लगभग 20 लाख रुपए खर्च हुए थे। जमीन से गुरुक्षरे के गुंबद की ऊँचाई 108 फीट है। इसेबाद 2016 में गुरु गोविंद सिंह के 350वें प्रकाश उत्सव को 
लेकर तख्त हर मंदिर साहिब को लेकर संतबाबा महेंद्र सिंह केद्वारा सोने की मीनाकारी का काम कराया गया। जयपुर के कलाकारों ने लगभग चार किलो सोने से दरबार साहिब को आकर्षक बनाया गया है। तख्त हरमंदिर साहिब सिखों के पाँच तख्तों में से एक है। अन्य चार अमृतसर में स्वर्ण मंदिर परिसर में स्थापित अकाल पंजाब में आनंदपुर साहिब में 
केशगठ साहिब, महाराष्ïट्र के नांदेड़ में तख्त हजूर साहिब और पंजाब के भटिंडा में तख्त लदमा साहिब हैं, जहाँ देश-दुनिया के श्रद्धालु आते हैं। पाँच मंजिली इस ऐतिहासिक इमारत में एक तहखाना है, जिसमें प्रवेश करते ही सबसे पहले प्राचीन स्वर्ण जडि़त पालकी पर गुरु गोविंद 
सिंहजी की युवावस्था का एक चित्र दिखाई देता है। यह चित्र लकड़ी की एक छोटी सी खटोली पर टँगा है। इसे 'पंगुरा साहिबÓ कहते हैं। इसकी दायीं ओर से भी गुरुग्रंथ साहिब जी विराजमान हैं। जबकि बायीं ओर दशम ग्रंथ विराजमान हैं। दोनों धर्मग्रंथों की ग्रंथियों द्वारा सेवा की 
जाती है, जो ग्रंथों को भक्त और आदर के रूप में छौर के साथ पर पंखा झालते हैं। छोटी-छोटी खूबसूरत मिनारे हैं। इसकेनीचे की छत पर चार किनारों पर चार चौकेट कमरे बने हुए हैं। ऊपर की गुंबदें गोलाई लिए हुए हैं, जोकि मुगल शैली से प्रभावित है। उत्तर-दक्षिण की ओर दो छोटे 
गुंबदनुमा 8 पायों पर निर्मित गुंबदें हैं। यह राजपूत शैली से प्रभावित है। गुरुद्वारे के चारों ओर झरोखेदार खिड़कियाँ हैं जोकि राजपूत शैली की विशेषताओं में से एक है। गुरुद्वारा सफेद रंगों से रँगा काफी स्वच्छ और सुंदर चमकता हुआ है। इसका प्रवेश द्वार गुरुद्वारा की स्थापत्य कला परही आधारित है। सालिस राय की हवेली में एक कोठरी बनी है, वही मूल 
स्थान है, जहाँ 339 वर्ष पूर्व सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह का शस्त्र तथा तेग बहादुर की खड़ाऊँ, दसवें बादशाह का तीन सौ वर्ष पुराना चोंगा आदि दर्शनार्थ रखे हुए हैं। श्रद्धालु यहीं बैठकर सबद-कीर्तन और भजन
गाते हैं। मुख्य द्वार के पास बना है संग्रहालय, जिसमें गुरु गोविंद सिंह महाराज साहिब से संबंधित चित्र तथा अन्य सामग्रियाँ रखी गई हैं। यहाँ जो चित्र रखे गए हैं, इनमें प्रमुख हैं—उनकी बाल लीलाओं से संबंधित तसवीर। तीसरी मंजिल पर अमृतपान तथा विवाह-काज, चौथी मंजिल पर पुरातत्त्व, हस्तलिपि आदि सुरक्षित रखी गई हैं। पटना साहिब लंगर 
इस स्थल की धर्मनिरपेक्ष तथा सेवा भावना का जीता-जागता सबूत है। यहाँ सुबह से लेकर देर रात तक लंगर चलता रहता है, जिसमें हर धर्म, जाति के लोग बिना किसी भेदभाव के भोजन ग्रहण करते हैं। 
बहरहाल, यह स्थल सांप्रदायिक एकता का एक बेमिसाल उदाहरण है। तख्त हरमंदिर साहिब के आगे से अल्लाह हो अकबर तथा पीछे से हर-हर महादेव का जयकार हमेशा गूँजता रहता है। शायद ही ऐसा वातावरण अन्य कहीं देखने को मिले।

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