संवाद
छठ का पर्व। बिहार और पूर्वांचल के लोगों के लिए यह केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि अपनी मिट्टी, अपने घर और अपनी संस्कृति से जुड़े रहने का प्रतीक है। लेकिन शहरों में नौकरी करने वाले प्रवासी बिहारी के लिए यह चार दिन की खुशी अक्सर अधूरी रह जाती है।
गांव, घर, खेत, कस्बा—सब छूट जाता है। लेकिन छठ नहीं। छठ वह डोर है जो पूरी दुनिया में बसे बिहारियों को उनकी जड़ों से जोड़े रखता है।
"माई का फोन आया था। कह रही थीं, 'बाबू, एहू बेरी छठ पर नहीं आए। तुम्हरे बिन छठ पर कुछ भी अच्छा नहीं लगता। अइसा नौकरी काहे करते हो, जहां छठ पर छुट्टी न मिले। नौकरियो त छठिए माई के दिहल है।'"
जिनका बचपन और किशोरावस्था गांव में बीती हो, और जो शहर की नौकरी की जंजीरों में बंध गए हों, वही इस पीड़ा को समझ पाते हैं। पैसा कमाने और बेहतर जिंदगी की तलाश में शहर आए आदमी को अक्सर अपने घर लौटने का ख्याल ही नहीं रहता। मां-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नाते पीछे छूट जाते हैं।
शहर की मोह माया उसे बांध लेती है। वह भूल जाता है उन सपनों को, जिन्हें अपने कंधों पर लेकर वह शहर आया था, यह सोचकर कि एक दिन लौटकर अपने गांव में रहेंगे। लेकिन हर छठ, यह याद दिलाता है—जड़ें हमेशा मौजूद हैं।
छठ का यह पर्व सिर्फ उपवास, अर्घ्य और सूर्य को अर्पित किए जाने वाला जल नहीं है। यह याद दिलाता है कि चाहे कितनी भी दूरी हो, चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ हों, घर की याद, मां का आशीर्वाद और अपने मिट्टी से जुड़ी परंपराएँ कभी नहीं भुलाई जा सकतीं।
शहर की भागदौड़ में खोए प्रवासी बिहारी के लिए छठ की चार दिन की पूजा, उसकी तन्हाई में भी उम्मीद की किरण बनकर आती है। यह पर्व उसे अपने घर, अपने गांव और अपने रिश्तों की याद दिलाता है, और यही इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती है।
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