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जानिए कैसे बनती है फिल्में

अनूप नारायण सिंह 
मुंबई।सिनेमा को समझने के लिए ये समझना जरूरी है कि सिनेमा बनाया कैसे जाता है।जैसे किताब लिखना शतरंज के जैसे एक अकेले इंसान का खेल है तो सिनेमा क्रिकेट या फुटबॉल के जैसा है।शतरंज में आप अपनी हार जीत के अकेले जिम्मेदार होते है।पर क्रिकेट या फुटबॉल में आपको पार्टनरशिप और सही वक्त में सटीक पास की जरूरत होती है।फुटबाल में एक मैनेजर होता है जो प्लेइंग फॉर्मेशन बनाता है,प्लानिंग करता है और सही वक्त पर सही प्लेयर को मैदान में भेजता है।सिनेमा में यही मैनेजर डायरेक्टर होता है।
उसकी पूरी जिम्मेदारी होती है कि उसके पास जो संसाधन है उसे किस तरह से इस्तेमाल करना है।सिनेमा में हर व्यक्ति का एक तय काम होता है जिसे करके वो किनारे हट जाता है पर डायरेक्टर फिल्म में शुरू से लेकर आखिरी तक रहता है और उसका फैसला आखिरी होता है।इसलिए डायरेक्टर को फिल्म का हीरो कहा जाता है।डायरेक्टर के बाद नंबर आता है प्रोड्यूसर का,दुनिया में कोई चीज बिना पैसे के मुमकिन ही नहीं है,प्रोड्यूसर ही होता है जो फिल्म को डायरेक्टर के बाद सबसे ज्यादा प्रभावित करता है।फिल्म के लिए कैसा कैमरा इस्तेमाल होगा,फिल्म में इस्तेमाल होने वाले प्रॉप और कॉस्ट्यूम की क्वालिटी, क्वांटिटी कैसी रहेगी ये सब कुछ प्रोड्यूसर के ऊपर होता है।पर अच्छे प्रोड्यूसर हमेशा डायरेक्टर की मर्जी के हिसाब से चलते है।
वो डायरेक्टर के विजन पर भरोसा करके डायरेक्टर पर पैसे लगते है।
अगर किसी फिल्म में पैसा स्टार पर लगा है तो उस फिल्म के खराब होने के चांसेज बहुत ज्यादा रहते है।
फिल्म की शुरुआत होती है एक आइडिया से,
जेम्स कैमरून को अवतार बनाने का आइडिया नब्बे के दशक में आया था पर जेम्स ने कई साल इंतजार किया,
क्युकी उन्हे मालूम था कि मौजूदा वक्त में उनके पास वो संसाधन नहीं है जो उस फिल्म को बनाने के लिए जरूरी है।
फिल्म के लिए जो आइडिया है या सब्जेक्ट है वो बहुत क्लियर होना चाहिए।कई मामले में डायरेक्टर खुद ही स्क्रिप्ट लिखते है तो कई दफा आइडिया डायरेक्टर का होता है पर वो किसी और से स्क्रिप्ट लिखवाते है।कुछ मामले में स्क्रिप्ट पहले तैयार होती है और डायरेक्टर बाद में चुना जाता है।
इस को फिल्म का डेवलपमेंट फेस कहते है, इस फेस में फिल्म किसी के दिमाग में या सिर्फ कागज पर ही होती है।
फिल्म इसके बाद जाती है प्री प्रोडक्शन फेस में।
यहा बेसिकली फिल्म को बनाने की तैयारी शुरू होती है।
सबसे पहले फिल्म का बजट तय होता है,
बजट तय करते वक्त फिल्म की लोकेशन,
उसकी कहानी का कालखंड,
उस कहानी के कालखंड के हिसाब से कॉस्ट्यूम, मेकअप, सेट डिजाइन, म्यूजिक (फिल्म के मूड और कालखंड के हिसाब से)
वगैरह चीजे तय होती है।
ये सारी चीजे पहले से तय होना और वक्त पर तैयार होना बहुत जरूरी होती है।
इसके पीछे हजारों लोगों की मेहनत लगती है और ये डायरेक्टर की जिम्मेदारी है कि वो हर चीज का बारीकी से ध्यान रखे।

इसके बाद अगला फेज आता है प्रिंसिपल फोटोग्राफी का।
इसे आप आसान भाषा में शूटिंग कह सकते है।
इस काम की जिम्मेदारी सिनेमेटोग्राफर की होती है जो डायरेक्टर के कहे मुताबिक उसकी मांग के अनुसार फिल्म को शूट करता है।
सिनेमटोग्राफर को इसमें अपना हुनर दिखाने की आजादी होती है पर आखिरी फैसला डायरेक्टर का होता है।
इसमें कैमरा किस एंगल पर रख कर शूट करना है,
किसे फोकस में रखना है किसे नहीं,
फ्रेम में क्या चीजे आनी चाहिए,
किस तरह से शूट किया जाए कि फिल्म का क्लाइमैक्स का कोई प्वाइंट पहले रिवील न हो जाए इन सब बातो का ध्यान रखा जाता है।
इतना सब होने के बाद फिल्म की जिम्मेदारी आती है एक्टर्स के कंधो पर।
क्युकी फिल्म में यही है जो दर्शकों के सामने होंगे और यही फिल्म की कहानी और फिल्म के संदेश को दर्शकों के सामने रखेंगे।
यहा पहली चीज जरूरी होती है कास्टिंग,
आप बॉडी बिल्डर के रोल में दुबले पतले आदमी को कास्ट नही कर सकते और न ही बहुत सालो से बीमारी से बिस्तर पर पड़े शख्स के रोल में किसी बॉडी बिल्डर टाइप के एक्टर को रख सकते है।
एक्टर को अपने एक्सेंट पर ध्यान देना होता है कि उसका किरदार किस भुगौलिक क्षेत्र से आता है।
उसके चलने का तरीका,
उठने का तरीका यहा तक की उसके देखने तक का तरीका किरदार के हिसाब से होना चाहिए।
बहुत से कैरेक्टर अपने किरदारों के लिए अपनी बॉडी अपनी भाषा सब कुछ बदल डालते है।
एक्टर कैसे कपड़े पहनेगा ये बहुत जरूरी पार्ट होता है,
उसके कपड़े उसकी हैसियत और उसकी कहानी के हिसाब से होने चाहिए।
1920 के किरदारों को आप 2020 के कपड़े नही पहना सकते।
एक चीज और मैं भूल गया वो है डायलॉग।
डायलॉग भी फिल्म का एक अहम हिस्सा है,
डायलॉग लिखते वक्त किरदार के एक्सेंट के साथ साथ उसकी मानसिक स्थिति तक का ध्यान रखना पड़ता है।
मतलब अगर आपका किरदार अभी मेच्योर नही है तो आप उससे गहरे मतलब वाले डायलॉग नही बुलवा सकते तब तक जब तक आप स्क्रीन पर किरदार में आए इस बदलाव की एक लॉजिकल वजह न दिखा दे।
फिल्म की शूटिंग के दौरान एक्टर्स को इंप्रोवाइज करने की भी आजादी होती है अगर डायरेक्टर को ये फिल्म के लिए सूटेबल लगता है।
फिल्म की शूटिंग जब पूरी हो जाती है तो फिल्म अपने आखिरी मेकिंग फेज में पहुंचती है।

आखिरी फेज को बोलते है पोस्ट प्रोडक्शन।
इसी जगह ये फैसला होता है कि दर्शकों को फिल्म का कितना हिस्सा किस तरह से देखने के लिए स्क्रीन पर मिलेगा।
एडिटिंग में फिल्म के गैर जरूरी सीन निकाले जाते है,
एडिटर को अगर लगता है कि कोई फुटेज कम है या डायरेक्टर को लगा कि यहा ये सीन और होना चाहिए तो कई दफा री शूट भी किया जाता है जैसे जस्टिस लीग के स्नाइडर कट वर्जन के लिए पोस्ट प्रोडक्शन के दौरान री शूट किया गया था।
इसी फेज में डबिंग होती है,
शूटिंग के दौरान ज्यादातर एक्टर की आवाज सही से रिकॉर्ड नहीं हो पाती है तो इसलिए एक्टर स्क्रीन पर सीन को देखते हुए दुबारा से लिप्सिंग करते हुए डायलॉग रिकॉर्ड करते है।
यहां डायरेक्टर की और एक्टर की ये जिम्मेदारी होती है कि कोई डायलॉग एक्टर की लिप्सिंग से मिस मैच न हो।
और एक्टर उसी भाव में डायलॉग की डबिंग करे जिस भाव में उन्हें पर्दे पर एक्टिंग करते देखा जा रहा है।
इसी दौरान बैकग्राउंड म्यूजिक का भी काम होता है।
बैकग्राउंड म्यूजिक का मकसद होता है दर्शकों को स्क्रीन पर होने वाली घटना की अहमियत/गहराई को समझाना।
बैकग्राउंड म्यूजिक सीन की गहराई को बना भी सकता है और बिगाड़ भी सकता है।
कई दफा बैकग्राउंड म्यूजिक स्क्रीन पर होने वाली घटना के पीछे खो जाते है तो कई टैलेंटेड लोग ऐसे भी है जिनका बनाया बैक ग्राउंड स्कोर सीन के साथ कंधा मिलाकर चलता है।
बैकग्राउंड स्कोर सीन की गहराई को कई गुना बढ़ाने की क्षमता रखता है।
हॉलीवुड में हांस जाइमर ऐसे ही आर्टिस्ट है जिनका बैकग्राउंड म्यूजिक लोगो को फिल्म देखने के कई सालो बाद तक जहन में रहता है।
फिल्म एडिट और डब होकर हमारे दो चार और फेज से होते हुए दर्शको के हवाले हो जाती है।
बाकी के फेज की चर्चा का कोई महत्व नहीं है।
मैं अगली पोस्ट में इन सारी चीजों के बारे में एक एक करके आपको विस्तार से समझाऊंगा। पर इतना लिखने का मकसद ये था कि आप ये समझ जाए कि आपको फिल्म देखते वक्त किन चीजों पर ध्यान देना है।किसी फिल्म को अच्छी मानना या बुरी मानना ये आपके अपने टेस्ट पर डिपेंड करता है पर फिल्म कोई भी हो,उसे इन सारी चीजों से होकर गुजरना पड़ता है।फिल्म महान वही कहलाती है जो इन सारी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए बनाई गई हो और इन सारे डिपार्टमेंट के लोगो ने अपना बेस्ट दिया हो।पर आखिरी फैसला डायरेक्टर का ही होता है क्युकी डायरेक्टर ही फिल्म का हीरो होता है।
(लेखक अनूप नारायण सिंह वरिष्ठ फिल्म पत्रकार व वर्तमान में फिल्म सेंसर बोर्ड कोलकाता के सदस्य हैं)

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