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बिहार के इस गांव में बिना मांस-मछली के अधूरा है रंगोत्सव का पर्व, होलिका की आग से चूल्हा जलाकर पकाया जाता है पकवा

संवाद 
बिहार के पश्चिम चंपारण में बड़ी संख्या में थारू जनजाति के लोग रहते हैं. ये लोग प्रकृति प्रेमी होते हैं और पर्यावरण की रक्षा के लिए संकल्पित हैं. अपनी सदियों पुरानी परंपरा को आज भी ये शिद्दत से निभाते हैं. थारू जनजाति की हमारी और आपकी होली से थोड़ा अलग है. जानें सदियों पुरानी परंपरा.

बगहा: होली रंगों के त्योहार के रूप में पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता है. होली के आते ही लोग अबीर-गुलाल और रंगों में सराबोर नजर आते है. लेकिन बगहा के तराई में बसे आदिवासी बहुल इलाके के थारू जनजाति के लोग होली के त्योहार को अलग ही अंदाज में सेलिब्रेट करते है. होलिका दहन की आग की आग से घर में चूल्हा जलाया जाता है और उसकी आग से पुआ पकवान बनाने का प्रथा वर्षों से चली आ रही है.

होली में नये फसल की करते हैं पूजा: होलिका दहन का बगहा के थारू जनजाति में खास महत्व होता है.
बगहा में होलीहोलिका की आग अच्छाई के रूप में थारू जनजाति के लोग अपने-अपने घर ले जाते हैं और इसी आग से पहले दिन जहां होली के दिन पकवान बनाकर खाते हैं. वहीं नई फसल के स्वागत रूप में गेहूं की बाली सेकी जाती हैं और इनकी परंपरागत पूजा होती है. दरअसल हिंदी कैलेंडर के अनुसार चैत्र माह से नए साल का आगाज होता है. लिहाजा नये अनाज की पूजा करने के बाद उसका सेवन करते हैं और फिर होली का पर्व मनाते हैं.

बिना मांस-मछली के सेलिब्रेट करते होली : पश्चिमी चंपारण जिले में थारू जनजाति की आबादी दो लाख से ज्यादा है और ये शिवालिक की पहाड़ियों की तलहटी में फैले वाल्मीकि टाइगर रिजर्व के घने जंगलों के किनारे रहते हैं. होली पर्व को भी हफ्ते भर ये अनोखे अंदाज में मनाते हैं. थारू जनजाति के लोग बिना मांस मछली के पर्व को अधूरे मन से मनाते हैं. माना जाता है कि होली का रंग फीका नहीं पड़े इसलिए मांस मछली बनाना प्रसिद्ध है.

बगहा में थारू जनजाति के लोग चैता गाते
गेंहू की बालियों को भुनकर खाते हैं: थारू जनजाति के महेश्वर काजी बताते हैं होली की खुमारी हफ्ते पहले से आदिवासी लोग पर चढ़ जाती है. होली के एक दिन पूर्व होलिका दहन की जाती है. जिसमें गेंहू की बालियों को भुना जाता है और होली के दिन धुरखेल खेलने के बाद नहा धोकर भुने हुए गेंहू के साथ आम का मंजर और नीम का पत्ता गुड़ के साथ सेवन करने की परंपरा है.

"एक सप्ताह पहले से गांव की कीर्तन मंडली रात में अलग-अलग लोगों के घर के बाहर चहका, चौताल और चैतवार गाते है. होलिका दहन में गेंहू की बालियों को भुना जाता है और होली के दिन धुरखेल खेलने के बाद नहा धोकर भुने हुए गेंहू के साथ आम का मंजर और नीम का पत्ता गुड़ खाने की अनोखी परंपरा है."- महेश्वर काजी

घर-घर गाते हैं चैता: चैता के बगैर होली का रंग फीका रह जाता है. अनिल काजी बताते हैं कि हमलोग हफ्ते भर पहले से घर-घर जाकर चहका, चौताल और चैतवार गाते हैं.होली के दिन सुबह धुरखेल खेला जाता है. इसकी शुरुआत चहका से होती है. चहका गाते हुए ग्रामीण सड़कों पर धुरखेल खेलते हैं और फिर दोपहर में रंग अबीर खेलने के बाद लोगों के घर घर जाकर चैता गाते हैं.

प्रकृति प्रेमी होते हैं थारू जनजाति के लोग: आदिवासी ग्रामीण अपने सभी पूजा पाठों में प्रकृति पूजा को काफी महत्व देते हैं. लिहाजा इनका उद्देश्य भी पर्यावरण को संरक्षित करना रहता है. जिसका मकसद पर्यावरण को सुरक्षित रखना और प्राचीन संस्कृति को जीवंत रखना होता है.आदिवासी ग्रामीण नए साल में पैदा होने वाले अनाज की पूजा करने के बाद उसका सेवन करते हैं और फिर होली का पर्व खास अंदाज में मनाते हैं.

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